Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 24
________________ अध्याय दूसरा । है। शांत भाव रहते हुए ज्ञानका विकास होता है। शांत भाव में तत्वोंका मनन होता है । शांतभाव भावको निराकुल व निर्मल रखता है । [ ४१ म वीर्य - वीर्य भी आत्माका स्वभाव है। आत्मामें अनंत चल है, जिससे इसके सर्व ही गुण पुष्ट रहते हैं । यह अपने वीर्य से सदा ही स्वभावके भोगमं तृप्त रहता है । संसारी आत्माओं में वीर्यकी जितनी प्रकटता होती है उतना ही अधिक उत्साह बना रहता है । हरएक काम में साहसकी जरूरत है। यही आत्मवीर्य है । आत्माके बलसे ही शरीर के अंग उपंग काम करते हैं। आत्माके निकल जाने से शरीर बेकाम मुरदा होजाता है | शरीरमें बहुत बल होनेपर भी यदि आत्मबल न हो तो युद्धमें सिपाही काम नहीं कर सक्ता है । व्यापारी व्यापार नहीं कर • सक्ता है | बड़े बड़े काम साहससे ही होते हैं । ज्ञानका काम जाननेका है. । वीर्यका काम ज्ञानके प्रमाण क्रिया करनेका है । यदि आत्मामें मैल न हो तो यह वीर्य गुण पूर्ण प्रकाश रहे । परमात्मा में कोई मैल नहीं है । इसीसे उसमें अनंत बल सदाकाल रहता है | आत्म • वीर्यको भी आत्माका स्वभाव निश्चय करना चाहिये । सुख-या परमानंद भी आत्माका मुख्य गुण है। जहां ज्ञान'में शांति रहती है वहां सुख गुणका प्रकाश रहता है । परमात्मामें - कोई विकार या अशांति नहीं है, इससे यहां अनंत सुख सढ़ा बना • रहता है। यह सुख स्वाधीन है। किसीके पराधीन नहीं है । जैसे ज्ञान, चारित्र, आत्माका गुण है वैसे ही सुख आत्माका - खास गुण है । संसारी जीवोंको जो इन्द्रियोंके भोग से सुख भासता है वह उसी मुख गुणका अशुद्ध झलकाव है । इन्द्रिय सुखसे कभी तृप्ति

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