Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

View full book text
Previous | Next

Page 22
________________ अध्याय दुसरा। [३७ विशेषरूप है, शुद्ध ज्ञानढर्गन सबको एकसाथ जानते व देखते है। संसारी आत्माएं मैली हैं उनके ज्ञानदर्शन स्वभावपर परदा है। जितना परदा जिसका दूर हुआ है उतना ही वह जानता देखता है। एक बालक बहुत कम जानता हे, विद्या पहनसे व अनुभवसे जानी हो जाता है। उसके भीतर ज्ञानकी वृद्धि कैसे हुई ? ज्ञानके होनमें बाहरी कारण अध्यापकगण व पुद्गलमे है, भीतरी कारण अनानका परदा हटता है। ज्ञान ऐसा गुण है जो भीतरसे ही विकास पाता है, कोई बाहरसे दे नहीं सक्ता । देन लेन ज्ञानम नहीं होता है। जहा देन लेन होता है वहा एक जगह घटती होती है तन दूसरी जगह बहती होती है। जैसे-धनके देन लेनमें होता है। किमीके पास हजार रुपये हैं, यदि वह १००) सौ देता है उसके पास ९००) नौसौ रह जाते है तब पानेवालेको सौ मिलते है। जानमे ऐसा नहीं होता है। यदि ऐसा देनलेन होतो पढानेवाले ज्ञानमें घंटे तब पढनेवाले ज्ञानमे बढे । ज्ञानके सम्बन्धमे देनेवाले व पानवाल दोनो ही ज्ञानको वहाते है । पढानेवालोंका ज्ञान भी साफ होता हैं, कम नहीं होता हैं। पहनेवालोका ज्ञान तो वह ही जाता है। दोनो तरफ बहती होनेका कारण दोनो तरफ भीतरसे अनानका नाश है। ज्ञानके ऊपरसे मैलका दूर होना है । इससे सिद्ध है कि पूर्ण जानकी शक्ति हरएक आत्मामे है। जिसका जितना अज्ञान हटता है उतना वह जानता है। परमात्माको मर्वदर्गी व सर्वज्ञ इसीलिये कहते हैं कि उसका जानदर्शन शुद्ध हैं, उनपर कोई रज या मल नहीं हैं। परमात्मा विश्वके सर्व पदार्थों को जानते हैं। उनकी भूत, भावी, वर्तमान, तीनों कालोंकी

Loading...

Page Navigation
1 ... 20 21 22 23 24 25 26 27 28 29 30 31 32 33 34 35 36 37 38 39 40 41 42 43 44 45 46 47 48 49 50 51 52 53 54 55 56 57 58 59 60 61 62 63 64 65 66