Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 23
________________ . . . . . ....... ... my ४०] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ ।। mer.rand माया-कषाय भी ज्ञानको मैरा कर देता है, कुटिल बना देता है। मायाचारी अच्छी शिक्षा ग्रहण नहीं करता है। ज्ञानका बुरा उपयोग करता है। परको ठगता है । मायाचारीके परिणामोंमे सदा आकुल्ता व भय बना रहता है । इस कारण जानकी निर्मलता नहीं रहती है। सरलतास जो ज्ञानका विकास होता है वह माया कपायके कारण बंद हो जाता है, माया भावके कारण किया गया गाल पठन, जप, तप, धर्माचरण सब अपने फलको नहीं देते है, उनसे भावोंकी स्वच्छता नहीं होती है। लोभ–कपाय सर्व विकारोंका मूल है । लोभसे प्राणी अन्धा होकर धर्मोपदेशको भूल जाता है। अन्याय व असत्यका दोप उसके मन, वचन, कायके वर्तनमे हो जाता है। लोभ कपाय आत्माको पाचों इन्द्रियोंके भोगमे प्रेरित करता है तब न्याय अन्यायका विचार जाता रहता है, भोग सामग्रीको चाहे जिस तरह प्राप्त करता है, भोगासक्त होकर तृप्णाका रोग वढा लेता है । चाहकी दामे जला करता है। इष्ट विषयोंके न पानेपर आकुलित होता है, इष्ट विषयोंके वियोगपर गोक करता है, मर्यादाका ध्यान नहीं रहता है। जितना २ धनादिका संग्रह होता जाता है और अधिक चाहको बढा लेता है। सन्तोषसे जो सुख मिलता है वह लोमके विकारसे नाश हो जाता है। इस तरह चारों ही कषायभाव आत्माके भीतर मैल पैदा करते हैं, आत्माका चारित्र गुणका शांतभाव बिगड जाता है। ज्ञान गुणको विकारी बना देते है। इसलिये यह बात निश्चय करना चाहिये कि आत्माका स्वभाव परम शांतभाव या वीतरागभाव है या चारित्र

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