Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 27
________________ ४८] ....जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ ।.. जब पूर्ण शुद्ध ज्ञान दर्शन प्रगट होता है तब प्रत्यक्ष आत्माका साक्षात् ज्ञान व दर्शन होता है तब अतीन्द्रिय आत्मामें थिरता अनंतवीर्यके गुण द्वारा होती है । मोहके क्षयसे सम्यक्त चारित्र गुण शुद्ध प्रगट होता है तब ही अनंत शुद्ध सुख गुणका प्रकाश होता है । जबतक इनका उदय होता है व तीन कर्म ज्ञानावरण दर्शनावरण व अंतरायका क्षयोपशम या जितना उढय नहीं होता है उतना अशुद्ध या अपूर्ण सुख गुण प्रगट रहता है। जहातक पूर्ण शुद्ध अनंत सुख गुण न झल्के वहातक स्वभाव न होकर विभाव रहता है । उस विभावरूप सुखके तीन भेद सासारिक अशुद्ध दशाम प्रगट होते है-(१) इन्द्रियजनिंत सुख । रागी जीव रागमे इन्द्रियके भोगोंको जानकर उस भोगमे अपने वीर्यसे तन्मय हो जाते है तब रति करनेसे अतृप्तिकारी सुख वेदन होता है या कभी मनसे इष्ट पदार्थोंका चिन्तवन करके भी सराग सदोष सुखका अनुभव होता है। (२) दुखका अनुभव जव इष्ट पदार्थका वियोग होता है व अनिष्ट पदार्थोका संयोग होता है तब इन्द्रिय या मन द्वारा उनका ज्ञान होते हुए वीर्य द्वारा उस कष्टको भोगा जाता है। इसमे अरति भावके द्वारा सुख गुणकी मलीन द्वेष रूप अवस्था प्रगट होती है इसीको दुःख, क्लेश, कष्ट या शोक कहते है। (३) सम्यक्तके चारित्र गुणके कुछ अंश शुद्ध होनेपर जब आत्मज्ञानी इन्द्रियोंसे व मनसे उपयोगको हटाकर अपने ही शुद्ध आत्माके स्वरूपमे जोडता है और आत्मानुभव झलकाता है तब आत्मीक सुखका वेदन होता है। यह सुख सच्चा है तो भी शुद्ध व पूर्ण न होनेसे विभाव है।

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