Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 9
________________ अध्याय पहला। ईश्वर शुद्ध है परन्तु उसका अंग जडसे मिलकर अशुद्ध व विकारी हो जाता है तो ई धरके अशी विकार होनेसे ईश्वर अवश्य विकारी हो जायगा व उमे विकारका फल भोगना पडेगा। ईश्वर एक अमूर्तीक पदार्थ है दममें उमर वण्ड नहीं हो सक्तं । खण्ड या टुकडे जड मुनीक पदार्थक ही हो मक्ते में जो परमाणुओंके बन्धसे बनते हैं। ईश्वर परम शुद्ध निर्विकार ही हो सका है. उसमें स्वयं कोई इच्छा किमी काग कानकी व मिमीको बनानकी व बिगाडनकी नहीं हो मनी है. न वर किसीफ माथ गगद्रेप करता है. वह समदर्गी है. वह जडमें अपना अंग भेज या कल्पना नहीं हो मक्ती है। स्वयं शुद्धसे अशुद्ध वनं या यान संभव नहीं है । इसलिये यही बात ठीक है कि हरएक शरीरमं भिन्न २ आला है। यह लोक जड और चनन पदाधीका अमिट समुदाय है। सके भीतर मी ही पदार्थ मत् है, मढा ही वने लोक जड़ चेतनका रहने । । भूरस न बनते हैं न बिगडत है । केवल मगृह व अनादि हैं। अवस्था ही दरती है । इमलिये यह लोक भी मत है. अनादि अनत है, मात्र अवस्थाओंके बदलनकी अपेक्षा क्या नहीं रहता है। आत्मा हरएक शरीरमें भिन्न २ है तौभी एकसे नहीं विदित होते है। उनके अंतरंग स्वभावमें विचित्रता हे उनके देव क्या है। बाहरी संयोगविचित्रता है। क्रोध, मान, माया, लोभ ये विकारी या अशुद्ध भाव या दोष हैं, क्योंकि इनके होनेपर शानभाव नहीं रहता है तथा साधारणतया सर्व जगत

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