Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 12
________________ १६] जैनधर्म में देव और पुरुषार्थ | CHA 131 · है । जितना २ कर्मका परदा हटता जाता है, ज्ञान स्वभाव प्रगट होता जाता है। एक बालक जब विद्या पढने बैठता है तब बहुत कम जानता है, पढते २ या पढने के पुरुपार्थसे अज्ञानका परदा हटता जाता है ज्ञान बढता जाता है | आत्मा वास्तवमे परमात्मारूप शुद्ध है, इसके साथ अनादिकाल से ही पाप पुण्यका सम्बन्ध है । इसी के कारण यह अनादिकालसे अशुद्ध होरहा है। इसका स्वभाव बहुतसा ढक रहा है । जितना कर्मका परदा हटा है उतना ज्ञान और वीर्य प्रगट है । उसी ज्ञान और वीर्यसे वृक्षादि प्राणी छोटेसे लेकर बड़े तक सर्व ही जंतु, पशु, पक्षी, मानव काम करते रहते है । ܠܠܠ .. ܙܠܙ असर । किसी कामका पुरुषार्थ करनेपर जब सफलता होती है तब पुण्य कर्मरूपी दैवकी मदद होती है। जब काममे दैवका पुरुषार्थपर सफलता नहीं होती है तब पापकर्मका फल प्रगट होता है । पापकर्मरूपी दैवने अन्तराय या विघ्न कर दिया । बहुत से आदमी एक ही प्रकारका व्यापार धनके लिये करते है । किन्हीको अधिक, किन्हीं को कम धनका लाभ होता है। कारण यही है कि जिसका पुण्य अधिक उसको अधिक लाभ, जिसका पुण्य कम उसको कम लाभ होता है । किन्हींको धनके पैदा करनेका उपाय करनेपर भी धनकी हानि उठानी पडती है, कारण पापका फल है । किन्हींको नहीं । यह सच पुण्य पापका फल है । लाभ होना पुण्यका फल व हानि होना पापका फल है । हरएक आत्माके पास पुरुषार्थ और दैव दोनों है । दोनोंकी सत्ता विना संसारका व्यवहार नहीं चल सकता है। यदि दैव या पाप पुण्य नहीं

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