Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 13
________________ अध्याय पहला। [१७ होता तो सर्व आत्माएं सर्वदा ही शुद्ध दिखलाई पड़तीं । सर्व ही मुखी रहते, मरण, रोग, गोक, वियोग आदि कष्ट नहीं होते। यदि पुरुषार्थ नहीं होता तो कोई भी कोई उद्यम नहीं करता । दोनोंका जगतम काम है। पुरुषार्थको ही जो केवल मानते है उनके मतसे हरएक प्राणीका ___ पुरुषार्थ सफल ही होना चाहिये । उसमे कोई पुरुषार्थ व दैव विनवाधाएं नहीं होनी चाहिये । तथा विचित्रता दोनों है। आत्माओंकी होना दैव या पाप पुण्य विना संभव __नहीं है। यदि केवल देवको माना जावे, पुरुषार्थ न माना जावे तो हगएक प्राणीको वेकाम बैठना चाहिये । भाग्यमें होगा तो भोजन पान आदिका लाभ हो जायगा । पुरुषार्थ करनेमें जो अच्छे या बुरे भाव होने है उन ही से दैव या पुण्य पाप बनता है । पुरुगध विना दैव नहीं हो सक्ता। यदि देव ही दैव माना जावे तो कोई आत्मा कभी पाप पुण्यके बंधनसे छूटकर मुक्त नहीं होसक्ता है। पुस्मार्थ ही के बल जन कोई विवेकी वैराग्य और सम्यग्ज्ञानकी खड्ग सम्हालता है वह पाप पुण्यकर्मक संचयको क्षय करके व नवीन कर्मको न बन्ध करके मुक्त होजाता है। पुरुषार्थ और देव विना संसारकी गाडी नहीं चल सकती है। यह बात समझ लेनी चाहिये कि देव दो तरहका होता है-एक तो वह जो आत्माके भावोंमें विकार पैदा करता है, दूसरा वह जो बाहरी संयोग-वियोगक होनम लाभ या हानि करता है। जितना ज्ञान, व वीर्य आत्माम प्रगट है वह पुरुषार्थ अन्तरङ्गका है, वहीं अन्तरङ्गमें

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