Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 11
________________ amrited.nlm.indiaN...........mar.mamiwand अध्याय पहला। । १३० हैं, उनकी यह क्रिया हमारे वुद्धिपूर्वक प्रयत्नके विना ही होती रहती है। वीर्य इनका अंतिम फल या सार है । उस वीर्यकी बदौलत या वीर्यके फलसे हमारा शरीर व हमारे शरीरके अंग उपांग काम करते रहते हैं। जैसे स्थूल शरीरमे स्वयं फल होजाता है वैसे सूक्ष्म कार्मण शरीरमे स्वयं फल होजाता है। कुछ लोगोंका यह मत है कि कोई ईश्वर पाप या पुण्यकर्मका __फल देता हे कर्म स्वयं फल नहीं देसक्ते क्योंकि ईश्वर पलनाता कर्म जड है । इस वातपर विचार किया जावे तो नहीं। यह वात ठीक समझमे नहीं आती है । ईश्वर अमूर्तीक शरीर रहित है, मन वचन काय रहित है, मनके विना यह किसीक पाप पुण्यक सन्बन्धमें विचार नहीं कर सक्ता,. वचनके विना दूसरोंको आज्ञा नहीं देसक्ता. कायके विना स्वयं कोई काम नहीं कर सकता है। वह सत्यढी हे, रागद्वेषसे रहित है । वह यदि जगतके अपूर्व जालम पड़े तो वह स्वय संसारी होजावे, विकारी होजावे। कुछ लोग पाप पुण्य कर्मका संचय भी नहीं मानते है, उनके मतसे ईश्वरको ही सब प्राणियोंक भले बुरेका हिसाव रखना पड़ता है। अमूर्तीक व शरीर रहित ईश्वरसे यह काम बिलकुल संभव नहीं है। यह सबका दफ्तर कैसे रख सकता है, यह बात कुछ भी समझमे नहीं आती है । दोनों ही बातें ठीक नहीं है कि पाप पुण्य कर्मका संचय होनेपर वह ईश्वर उनका फल भुगतावे या संचय न होनेपर ही वह ईश्वर सुख दुख पैदा करे । ईश्वरमें दयावानपना भी व सर्वशक्तिमानपना भी माना जाता है, तब ऐसा ईश्वर जिन जगतके प्राणियोंका

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