Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth Author(s): Shitalprasad Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia View full book textPage 5
________________ श्रीवीतरागाय नमः। जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ अध्याय पहला। देव व पुरुषार्थकी आवश्यक्ता। मंगलाचरण । वीतराग विज्ञान मय, परमानन्द स्त्रभाव । नमहुँ सिद्ध परमात्मा, त्याग ममत्व विभाव ॥१॥ परम धर्म पुरुषार्थस. साध मोक्ष पुरुषार्थे। अविनागी कृतकृत्यको, व्याऊं कर पुरुषार्थ ॥२॥ कर्म दैवकी सैन्यको. धर्म खड्गसे चूर । सिद्ध किया निज कार्यको, नमहं होय अघ दूर ॥३॥ जगतमे देव और पुरुषार्थ दोनों प्रसिद्ध है। ठेवको भाग्य, अष्ट. कर्मका फल, किस्मत, करणी. तकदीर, fate फट, आदि नामोसे कहते हैं। और पुरुषार्थको उद्योग, प्रयन्न, तदबीर, परिश्रम, उत्सह. कोशिश आदि नामोंसे पुकारते है। जब कोई किमी कामको सिद्ध कर लेता है तब पुरुषार्थकी दुहाई दी जाती है। जब कोई काम बिगड जाता है या विघ्न आ जाता है तत्र देवको याद किया जाता है। दोनों बातें जगतमे प्रचलित हैं। इन दोनों बातोंकी आवश्यक्ता तब ही होगी जब दोनों बातें सिद्ध हो। जो लोग केवल जडवादी है, जो जाननेवाले आत्माको बहसेPage Navigation
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