Book Title: Jain Dharm me Dev aur Purusharth
Author(s): Shitalprasad
Publisher: Mulchand Kisandas Kapadia

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Page 6
________________ ४] जैनधर्ममें दैव और पुरुषार्थ । गया है परन्तु ज्ञान उसको बालपन तकका है। हम एक काल एक ही इन्द्रियसे जानते हैं परन्तु हमको पांचों इन्द्रियों के द्वारा प्राप्त जानकी धारणा बनी रहती है। यदि केवल जडसे जानना होता तो जाननेक पीछे जानका सचय नहीं रहता। कारण व कार्यका लम्बा विचार ज्ञानी आत्मा ही कर सकता है। एक बालकको भी अनुभव है कि मैं हाथसे छूकर, जवानसे चाखकर, नाकस सूंघकर. आखसे देखकर. कानसे सुनकर जानता हू, शरीरादि द्वार है वे नहीं जानते है. मैं ही कोई जाननेवाला हू जो आख नाक आदिसे जानता हू । आत्मा हगएकक अनुभवमें खूब आ रहा है। किसी भी मुदा या जड पदार्थमे अनुभव या वेदना feeling नहीं होती, कितु सचतन पढाथैम हाती है। क्योंकि जाननेवाला आत्मा शरीरंम है। आत्मा कभी मरता नहीं, शरीर बदलता है। नए पैदा हुए वालकको बहुतमा परला मस्कार होता है। गर्भसे बाहर निकले हुए बालकको भूग्वकी वेदना होती है, वह रोता हे, दूध मिलनेपर संतापी होजाता है । यदि उस कोई सतावे मारे तो दुखी होता है, क्रोधमे भरजाता है। उसमे लोभ व क्रोध झलकते है वह पुराना ही संस्कार है। किसीने उसे सिखाया नहीं। गरीरमे आनेके पहले वह कहीं और गरीरमे अवश्य था। पूर्व जन्मके संस्कारवग एक स्कूलमें पढ़नेवाले बालक व एक ही माताके उढरसे निकले बालक कोई तीव्र बुद्धि रखते हैं कोई मन्द, कोई थोडे कालमे बहुत याद करलेते है कोईको बहुत कालमें भी याद नहीं होता है। मूर्ख माता पिताओंकी संतान बुद्धिमान व विद्वान बन जाती है व विद्वान माता पिताकी संतान मूर्ख देखने में आती है। यह नियम नहीं है कि मूर्ख माता पिताकी

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