Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi
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[ ग्यारह ]
और कमियाँ दूर हो गयीं। इस उपकार के लिए मैं गुरुवर के चरणों में अपनी परमभक्ति एवं कृतज्ञता निवेदित करता हूँ।
इस प्रसंग में मैं अपने पूज्य पिता स्व. पण्डित बालचन्द्र जी प्रतिष्ठाचार्य तथा पूजनीया माता स्व. श्रीमती अमोलप्रभा जी जैन के प्रति अपनी अनिर्वचनीय श्रद्धा एवं कृतज्ञता ज्ञापित किये बिना नहीं रह सकता, क्योंकि इन्होंने मुझे जिन संस्कारों में ढाला है तथा जिस शिक्षा-दीक्षा से सँवारा है उन्हीं से मैं इस विषय पर लेखनी चलाने योग्य बन पाया हूँ। मेरी पूजनीया बड़ी बहनों श्रीमती शान्ति जैन एवं स्व. श्रीमती कंचन जैन, पूज्य बड़े भाई पं. कोमलचन्द्र जी एवं प्रिय अनुजद्वय श्री शीलचन्द्र तथा श्री शिखरचन्द्र ने भी मेरे विद्यापथ को प्रशस्त करने में यथाशक्ति परिश्रम किया है। अत: इनके प्रति भी मैं यथायोग्य आदर और आशीर्वाद की अभिव्यक्ति करता हूँ।
मेरी सरलहृदया, सहनशीला, धर्मानुरागिणी पत्नी श्रीमती चमेलीदेवी जैन का इस ग्रन्थ के लेखन में महान् योगदान रहा है। अनेक वर्षों तक मैं अध्ययन और लेखन में व्यस्त रहा। उस समय उन्होंने गृहस्थाश्रम के मेरे उत्तरदायित्वों को भी अपने ऊपर लेकर घर-गृहस्थी की चिन्ताओं से मुझे पूर्णत: मुक्त रखा और मेरे लिए अधिकाधिक समय एवं अनुकूल परिस्थितियाँ उपलब्ध करायीं। एतदर्थ मैं उनका ऋणी हूँ, उनके लिए हृदय में अनेक मंगलकामनाएँ समाहित हैं। मेरे दोनों पत्रों चिरंजीव अनिमेष और अनुपम ने पाण्डुलिपि तैयार करने और मद्रलेखन कराने में बहुत सहायता की है। इन दोनों को मैं शुभाशीर्वाद देता हूँ।
अन्त में पार्श्वनाथ विद्यापीठ के प्रवक्ता एवं प्रकाशनाधिकारी डॉ. श्रीप्रकाश जी पाण्डेय के प्रति आभार व्यक्त करता हूँ, जिनके सार्थक प्रयास से ग्रन्थ का प्रकाशन शीघ्र सम्भव हुआ है। ग्रन्थ-प्रकाशन हेतु पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी का ऋणी तो हूँ ही।
अल्पज्ञों की कृति में त्रुटियाँ होना स्वाभाविक है। विज्ञों से मेरा विनम्र निवेदन है कि ग्रन्थ में जो भी दोष उनकी दृष्टि के विषय बनें उन्हें मेरी दृष्टि में लाने की कृपा अवश्य करें, जिससे मैं अगले संस्करण में उनका निराकरण कर सकूँ।
रतनचन्द्र जैन
दिनांक ३१-१०-१९९७ १३७, आराधनानगर, कोटरा - सुल्तानाबाद भोपाल - ४६२ ००३
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