Book Title: Jain Darshan me Nischay aur Vyavahar Nay Ek Anushilan
Author(s): Ratanchand Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 12
________________ [ दस ] निर्देशन प्रदानकर कृतार्थ किया है। इस हेतु मैं उनका हृदय से आभार स्वीकार करता जैनदर्शन के लब्धप्रतिष्ठ विद्वान् डॉ. सागरमल जी जैन ने, जो उस समय भोपाल के हमीदिया महाविद्यालय में दर्शन-विभाग के अध्यक्ष थे, शोधकार्य सम्पन्न करने में मेरी बहुत सहायता की है। उन्हीं के सहयोग से मैंने शोधकार्य की रूपरेखा तैयार की और शोधकार्य पूर्ण होने तक उनसे बहुमूल्य मार्गदर्शन प्राप्त करता रहा। पश्चात् डॉक्टर साहब वाराणसी के पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान में चले गये। वहाँ पहुँचकर उन्होंने मेरे शोध-प्रबन्ध को प्रकाशित करने का प्रस्ताव किया और अनेक बार शोध-प्रबन्ध भेजने का आग्रह किया, किन्तु मैं उसे प्रकाशन के योग्य नहीं पाता था। उसे संशोधित, परिमार्जित और परिवर्धित करके उस स्तर पर ले जाना चाहता था कि प्रकाशित होकर जब विद्वानों के हाथ में पहुँचे तो मैं उनके उपहास का पात्र न बनूँ। अनेक व्यस्तताओं और विघ्नों के बीच में आ जाने के कारण यह कार्य अब सम्पन्न हो सका है। इतने लम्बे अन्तराल के बाद भी यह माननीय डॉ. सागरमल जी के द्वारा पार्श्वनाथ विद्यापीठ, वाराणसी से प्रकाशित किया जा रहा है। इस स्नेह और अनुग्रह के लिए मैं उनका अत्यन्त आभारी हूँ। समय-समय पर पूज्य गुरुवर डॉ. ( पण्डित ) पन्नालाल जी साहित्याचार्य से भी मैंने विवादग्रस्त विषयों पर आगम के यथार्थ मन्तव्य को समझने की चेष्टा की है और उनकी विद्वत्तापूर्ण विवेचना से मैं यथार्थ निर्णय पर पहुँचने में समर्थ हुआ हूँ। पण्डित जी ने स्नेहपूर्वक इस ग्रन्थ की प्रस्तावना लिखकर भी मुझे अनुगृहीत किया है। अत: मैं उनके चरणों में नतमस्तक होता हुआ अपनी हृदयस्थ कृतज्ञता ज्ञापित करता हूँ। स्व. पूज्य पण्डित वंशीधर जी व्याकरणाचार्य का भी आशीर्वाद मुझे प्राप्त हुआ है। उनके द्वारा प्रदत्त स्वलिखित ग्रन्थ मुझे निश्चय और व्यवहार नयों के स्वरूप तथा वस्तुव्यवस्था को समझने में बहुत सहायक हुए हैं। उनके साथ हुई प्रत्यक्ष चर्चा से भी मैं लाभान्वित हुआ हूँ। आदरणीय डॉ. दरबारीलाल जी कोठिया के प्रोत्साहन और मार्गदर्शन ने भी मेरा पथ प्रशस्त किया है। मैं इन दोनों मूर्धन्य विद्वानों के प्रति हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ। मेरा परम सौभाग्य है कि यह शोध-प्रबन्ध सन् १९८० में सागर ( म. प्र. ) में षट्खण्डागमवाचना के समय परमपूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी ने लगातार दस दिन तक, एक-एक घण्टे का समय देकर ध्यान से सुना था और सुनकर प्रसन्न हुए थे। कई जगह उन्होंने संशोधन और कुछ नये तथ्यों के संयोजन का भी परामर्श दिया था, जिन्हें क्रियान्वित करने से शोध-प्रबन्ध के अनेक दोष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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