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प्रस्तावना
'जैन दर्शन में कर्म सिद्धान्त-एक अध्ययन' यह ग्रन्थ महर्षि दयानन्द विश्वविद्यालय, रोहतक द्वारा १९८७ में पी०एच०डी० की उपाधि हेतु स्वीकृत किया गया शोध प्रबन्ध है । इसमें कर्मबन्धनसे लेकर कर्ममुक्ति तक की प्रक्रियाका तुलनात्मक विवेचन किया गया है। कर्मसिद्धान्त भारतीय दर्शनका एक महत्वपूर्ण सिद्धान्त है, जिसे चार्वाक् दर्शनको छोड़कर अन्य सभी दर्शनों ने किसी न किसी रूपमें स्वीकार किया है । जैन दर्शनमें कर्मसिद्धान्तको नींवका पत्थर माना गया है क्योंकि समस्त दार्शनिक विषयोंका यह मूल आधार है । यद्यपि कर्मसिद्धान्त प्रधानता से करणानुयोगका विषय है, परन्तु द्रव्यानुयोग तथा चरणानुयोगमें भी यह सिद्धान्त अनुप्राणित है। क्योंकि द्रव्योंके रूप को जाने बिना कर्मका स्वरूप नहीं समझा जा सकता और कर्म मुक्तिके पथको चरणानुयोगके द्वारा ही प्रतिपादित किया जा सकता है। प्रस्तुत शोध प्रबन्ध में जैन दर्शन मान्य कर्मसिद्धान्तसे संबंधित मूल तत्त्वोंका विश्लेषणात्मक तथा तुलनात्मक परिचय दिया गया है।
संपूर्ण शोध प्रबन्धको सात अध्यायोंमें विभक्त किया गया है । अध्यायों से पूर्व कर्मसिद्धान्त की पृष्ठभूमि में सुख दु:ख का मूल कारण क्या है, बाह्य तथा आभ्यन्तर समस्त जगत में विषमता क्यों पायी जाती है, कर्मसिद्धान्त में नियति, पुरुषार्थ, देवादि का क्या स्थान है और विभिन्न दर्शनों के कर्मसिद्धान्तका परिचय देते हुए, जैन दर्शन के कर्म सिद्धान्त की मूल परम्परा और साहित्यका संक्षिप्त निर्देशन किया गया है।
प्रथम अध्यायमें जैनदर्शन मान्य वस्तुस्वभावका परिचय कराया गया है। इसमें सत्ताका तुलनात्मक विवेचन किया गया है। जैन मान्य सत्ताको षड्द्रव्य रूप माना गया है-जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल। जीव और पुद्गल दोनों के पारस्परिक बन्धसे ही कर्म की उत्पत्ति होती है। जैन दर्शन में सत्ताको उत्पाद, व्यय और धौव्य युक्त माना गया है । जड़ और चेतन दोनों प्रकार की सत्ताओंमें पूर्व पर्यायका विनाश होता रहता है और नवीन पर्याय उत्पन्न होती रहती है परन्तु सत्ता ज्यों की त्यों ध्रुव बनी रहती है। इस सिद्धान्तको समझने के लिए ही षड्द्रव्यों के सामान्य और विशेष गुण और विभिन्न पर्यायोंका तुलनात्मक दृष्टिसे विवेचन किया गया है।
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