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(VII)
इसी क्रमसे धीरे-धीरे आगे चलने पर साधक उन नवीन संस्कारों को भी क्षीण कर देता है और निर्विकल्प समाधि में स्थित हो जाता है, अर्थात् अन्तरंग तथा बहिरंग समस्त मानसिक व्यापारको रोककर समता भूमिमें प्रवेश कर जाता है। तब उसके हृदयमें उस ज्ञानमूर्ति के दिव्य दर्शन होते हैं जिसमें कि तीन लोक तीन काल हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष हो उठते हैं। जीवकी यह दशा 'जीवन्मुक्त कहलाती है। संस्कार-विहीन हो जानेपर कुछ काल पश्चात् कायिक तथा वाचिक क्रियायें भी स्वत: रुक जाती हैं और यह स्थूल शरीर भी किनारा कर जाता है। अब वह महाभाग्य 'विदेह मुक्त' होकर सदा के लिए चिदानन्द घनमें लीन हो जाता है |
साधकके मार्गमें प्राय: भयंकर विध्न आते हैं। इस रहस्यको जानना सरल नहीं है। बड़े-बड़े तपस्वी उनसे अनभिज्ञ रहने के कारण धोखा खा जाते हैं। उनमें से एक प्रधान विध्न यह है कि जब साधक अशान्ति-जनक स्थूल संस्कारोंपर विजय पा लेता है और उसके प्रभावसे जब उसमें एक धीमीसी ज्योतिमयी रेखाकी झलक आती है तो वह अपनेको पूर्णकाम समझ बैठता है। इसका कारण यह है कि वह झलक इतनी स्वच्छ तथाशीतल होती है कि साधकके सर्व तापक्षण भरके लिए शान्त हो जाते हैं । इस भ्रान्तिके कारण साधक ज्यों ही कुछ प्रमाद करता है त्यों ही उसके प्रसुप्त संस्कार जागृत होकर उसे ऐसा दबोचते हैं कि बेचारेको सर उभारनेके लिए भी अवकाश नहीं रह जाता और पथ-भ्रष्ट होकर चिर कालतक जगतके कण-कणकी खाक छानता फिरता है। उसकी यह दशा अत्यन्त दयनीय होती है।
आचार्यों की करुण कपाका कहाँ तक वर्णन किया जाये। बुद्धि से अगोचर इन सूक्ष्म संस्कारके प्रति साधकको जागरूक करने के लिये उन्होंने गुणस्थान परिपाटीके द्वारा उनकी अदृष्ट सत्ताका बोध कराया है। समाधिगत निर्विकल्प साधुके हृदयकी किसी गहराईमें बैठे उनकी सत्ताका दिग्दर्शन कराके उनके उदयकी संभावना के प्रति चेतावनी दी है। बुद्धि- गम्यकी अपेक्षा बुद्धिसे अतीत इन वासनागत संस्कारों को तोड़ना अत्यन्त क्लेशकर होता है । लब्धिगत इनका उन्मूलन किये बिना आनन्दघनमें प्रवेश होना संभव नहीं।
अत्यन्त परोक्ष होनेके कारण इस विषयको शब्दों द्वारा समझाना कोई सरल काम नहीं है । इसे समझनेके लिए अत्यन्त केन्द्रित उपयोगकी तथा कटिबद्ध लम्बे अभ्यासकी आवश्यकता है। इसका यथार्थ परिचय करणानुयोगकी शरणमें जाये बिना संभव नहीं है । यह छोटी सी पुस्तक आपको उसकी शरणमें जानेकी प्रेरणा दे, बस इतनी ही मेरी प्रभुसे प्रार्थना है । अध्यात्म प्रेमियों के हृदयमें इस अनुयोगको पढ़ने की रुचि जागृत हो, बस इतनी मात्र ही मेरी भावना है।
श्री जिनेन्द्र वर्णी
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