________________
ईश्वरवाद
अवश्य ही होता है। एवं जो पुरुप इस जगतकी एक एक वस्तुकी रचना करता है वह उन तमाम वस्तुओका तथा उनके कारणोका जाननेवाला हो तव ही उन वस्तुओंकी रचना कर सकता है। इससे उसे संसारके समस्त पदार्थोंका शान है। अर्थात् वह सर्वक्ष है यह वात स्वयंही सिद्ध हो जाती है।
इसी प्रकार जो मनुष्य जितनी जगह जितने स्थानों में पहुँच सकता है उतने ही स्थानों में वह कार्य कर सकता है । अर्थात् जहाँ पर काम कर सकता है वहाँ पर उसका अस्तित्व तो सिद्ध ही है। क्योंकि जहाँ पर उसका अस्तित्व ही नहीं वहाँ पर उससे कुछ हो भी नहीं सकता । जगतको वनानेवाला पुरुष भी जगतके इस सिरेसे लेकर उस सिरे तक अनेक रचनायें रच रहा है इस बातको सिद्ध करने के लिये वे रचनायें चंद्र सूरज, और तारे ही काफी हैं । यदि वह पुरुप सब जगह न रहता हो तो ये सर्व प्रकारकी रचनायें किस तरह होसकें ? अतः अपने आसपासकी, दूरकी, ऊपरकी और नीचेकी ये तमाम रचनायें हा उसे सवजगह रहा हुआ सावित करती हैं । अर्थात् उस परम पुरुपकी व्यापकतामें कोई पाश्चर्य या क्षति उपस्थित नहीं होती।
वह नित्य है, यह संसार, विस्तीर्ण आकाश, असंख्य तारे और पाताल ये तमाम वस्तुये नित्य रहनेके कारण इनके रचनेराला भी नित्य होना चाहिये । अर्थात् वह सर्व प्रकारके विकारसे रहित-नित्य हो तब ही घट सकता है । वस यह एक ही युक्ति ईश्वरको नित्य किंवा निर्विकार सिद्ध करने में काफी होगी।
वह एक है, जंगल सिंह एक ही होता है, राजाश्रोमें चक्रवर्ती एक ही होता है इसी प्रकार इस तरहका सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् और निर्विकारी वह एक ही है। उसके समान अन्य कोई होसके यह संभावित ही नहीं।
इस प्रकार क्षति रहित युक्तियों द्वारा जन्म मरणसे मुक्त कोई एक पुरुष जगतका कर्ता, जगतका पालक, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशकिमान्, नित्य-निर्विकार और एक सिद्ध होता है और वही