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जैन दर्शन
मालूम होता है कि भूख और मोहके बीच किसी भी तरहका सम्बन्ध नहीं है । यदि कुछ सम्बन्ध होता तो जिस उपायसे मोह दूर होता है उसी उपायसे भूक भी दूर होनी चाहिये | परन्तु इस प्रकारका अनुभव कहीं भी देखने या जानने एवं सुननेमें नहीं या अतएव भूखको मोहका अंश गिननेकी आपकी कल्पना उचित नहीं है ।
हमारी तो यह मान्यता है कि केवल ज्ञान होनेसे पहिली दशामें और केवल ज्ञानकी दशामें किसी प्रकारका शरीरके साथ सम्वन्ध रखनेवाला विशेष परिवर्तन नहीं हुआ, तो फिर जिस प्रकार प्राप केवलीको निराहारी माननेका हट करते हैं उसी प्रकार केवली होनेसे पहली दशामें भी ऐसा हट क्यों नहीं करते ? इन दोनों स्थिति में उसका प्रायुष्य तो किसी भी प्रकार टूट ही नहीं सकता इस लिये आपकी दलील के अनुसार तो उसे केवलज्ञान होनेसे पहले भी आहार करनेकी श्रावश्यकता न होनी चाहिये । क्या ! आप यह मानते हैं कि केवलज्ञान होनेसे पहले यदि आहार न ग्रहण किया जाय तो उस वक्तके अन्य चार ज्ञानको धक्का पहुँचे ? महाशयजी ! आपको यह वात भुला देने जैसी नहीं है कि भूख और मोहके समान ही भूख और ज्ञानका इसी प्रकारका कि जो एकसे परस्पर दसरेको हानि पहुँचे सम्बन्ध ही नहीं। जब वह वात है तो फिर भूखेसे ज्ञान या ज्ञानीको किस प्रकार और क्या हानि हो सकती है ? कदाचित आप यह कहें कि केवली भी भोजन कर - नेकी गरज रखे तो फिर उसका अनंतवीर्य ही कैसे कहा जाय ? जब आप ऐसा कहकर केवलीके अनंतवीर्यका बचाव करते हैं तव कोई यह भी कहेगा कि यदि केवली अनंत वीर्यवान् है तो फिर मुक्ति प्राप्त करनेमें उसे सम्यक्त्वकी गरज किस लिये रखनी चाहिये? जीनेमें उसे आयुष्यकी गरज किस लिये रखनी चाहिये ? और चलने में एवं बोलनेमें उसे पैरों और सुखकी गरज किस लिये रखनी चाहिये ? यदि वह केवली पूर्वोक्त प्रवृत्तियोंके लिये, पूर्वोक्त समस्त साधनकी गरज रखता है तो आपके हिसावसे उसका अनंत वीर्य कहाँ रहा ? फरमाइये अव आप किसी भी केवलीको अनंतवीर्यवान् किस