Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

View full book text
Previous | Next

Page 220
________________ २०२ जैन दर्शन हैं । इस तरह इस वातमें भी अनेकान्त है । अन्त कथन यही ' है कि अनेकान्त शासन प्रामाणिक और इष्ट एवं दोप रहित है । वौद्ध वगैरह मतवाले भी अपने २ मतमें अनेकान्तवादको सन्मान देते हैं और स्वीकृत करते हैं, परन्तु यहाँ पर मात्र शब्दोंसे ही उसकी अव गणना करते हुये लज्जित नहीं होते । यह एक आश्चर्य की बात है । चौद्धमतवाले अनेकान्तवादको किस तरह मानते हैं, पहले यहाँ पर यह बात इस प्रकार बतलाते हैं:-- १ वे दर्शनरूप (विकल्प रहित) वोधको किसी अपेक्षासे प्रमाणरूप मानते हैं और किसी अपेक्षासे प्रमाणरूप मानते हैं । २ दर्शनके वाद होनेवाले विकल्पमें किसी अपेक्षासे सविकल्पत्व मानते हैं और किसी पेक्षा प्रविकल्पत्व । ३ एक ही चित्तको किसी अपेक्षाले किसी जगह प्रमाणरूप मानते हैं और किसी जगह अप्रमाणरूप । ४ एक ही प्रमेयको वे किसी अपेक्षासे प्रमेयरूप मानते हैं और किसी अपेक्षासे अप्रमेय रूप । ५ सविकल्पक ज्ञानको किसी अपेक्षासे भ्रमवाला और किसी अपेक्षाले भ्रम रहित मानते हैं । ६ दो चन्द्रके झानको वे किसी अपेक्षाले सत्य और किसी अपेक्षासे असत्य मानते हैं । ७ एक ही क्षणमै किसी अपेक्षासे जन्यत्व और किसी अपेक्षासे जनकत्व मानते हैं । ८ एक ही ज्ञानके अनेक आकार मानते हैं । ९ तथा समस्त पदाथको जाननेवाला ऐसा वुद्धका ज्ञान चित्ररूप क्यों न कहा जाय ? उन्हें उसे चित्ररूप ज्ञानमें अनेक प्राकार मालूम पड़ते हैं । १० एक ही हेतुमें अन्वय और व्यतिरेकको वे तात्विक मानते हैं । इस प्रकार वैभासिक वगैरह वौद्धमतके प्रभेद स्वयं स्याद्वादका स्वीकार करते हुये भी उसमें विरोध बतलावें, यह कैसा श्राश्चर्य कहा जाय ? 'सौभांतिक बौद्धमतवाले एक ही कारणको अनेक कार्योंको करनेवाला मानते हैं । यहाँ पर हम यह पूछना चाहते हैं कि जो एक सर्वथा क्षणिक कारण अनेक कार्योंको उत्पन्न करता है वह एक ही स्वभाववाला है या अनेक स्वभाववाला ? यदि एक ही · 4

Loading...

Page Navigation
1 ... 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251