Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 223
________________ प्रमाणवाद २०५: एक ईश्वर में माने हुए हैं । ऐसा माननवादा वादी अनेकान्तके विरुद्ध कैसे गर्दन ऊंची कर सकता है ? एक ही प्रामलकमें कुवलयकी अपेक्षा बड़ापन और विल्वकी अपेक्षासे छोटापन, ऐसे दो विरुद्ध धर्म रहे हुए हैं । इसी तरह एक इक्षुखंडमें छोटेसे लकडोके टुकड़ेकी अपेक्षा लम्बाई और वांलकी अपेक्षा छोटाई, ये दो विरोधी स्वभाव प्रत्यक्ष तौरसे देखे जाते हैं। एक देवदत्त में उसके पिताको अपेक्षा परत्व और पुत्रकी अपेक्षा आपरत्व, ऐसे दो विरोधी स्वभाव रह सकते हैं। नये द्रव्यसे रहनेवाला द्रव्यत्व सामान्यरुप है और वही जव गुणकर्मसे पृथक् अवस्था रहता है, तब विशेष रुप है। इस प्रकार एक ही द्रव्यत्व एक अपेक्षाले सामान्य रुप है और दूसरी अपेक्षासे विशेष रूप है, तथा इसी तरह गुणत्व और कर्मत्व भी सामान्यरुप तथा विशेषरुप हो सकते हैं। इस तरह एक ही पदार्थमें सामान्य धर्म और विशेप धर्म तथा इन दोविरुद्ध धर्मोको घटानेवाले एवं माननेवाले अनेकान्तवादके विरुद्ध कैसे. हो सकते हैं ? तथा वे एक ही हेतुके पांच रुप मानते हैं, एकः ही पृथ्वीके परमाणु सत्व, द्रव्यत्व, पृथ्वीत्व, परमाणुकत्व और. अन्य परमाणुओंसे तथा अन्त्य-अंन्तिम विशेषसे पृथकत्व स्वीकारते हैं एवं इस तरह परमाणुमें भी वे सामान्य विशेषत्व मानते हैं। यदि परमाणुसे सत्व वगैरह धोको भिन्न ही मान लियाः जाय तो वे धर्म परमाणुमें न रह सकेंगे। इसी तरह देवदत्तमें सत्व, द्रन्यत्व और आत्मत्व तथा दूसरोंले पृथकत्व यह सब कुछ रहा हुया है याने उसमें भी सामान्य विशेषता घट रही है।ऐसे ही आकाश आदिमें भी इसी तरह सब घटा लेना चाहिये,अर्थात् नैय्यायिक वगैरह वादी एक ही पदार्थमें दो विरुद्ध धर्म-सामान्य और विशेषको मानते हुये अनेकान्तवादका विरोध कैसे कर सकते हैं ? प्रत्येक परमाणुमें एक सरीखीयाकृति, एकसे गुण और एकसी मिया तथा पारस्परिक विलक्षणता ये परस्पर विरुद्धतावाले धर्म रहते हैं। इस प्रकार स्याद्वादकी सिद्धि हो सकती है। इसी तरह नैय्यायिक और वैशेषिक पद-पदमें स्याद्वादके नियमानुसार चलते' हुए भी उसका अनुसरण न करें और प्रत्युत उसका सामना करें,.

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