Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 227
________________ प्रमाणवाद २०९ नहीं, क्योंकि सिंहरूप है और एकला सिंह नहीं, क्योंकि नररूप है। किन्तु शब्दविज्ञान और कार्योंके भेदके कारण वह कोई भिन्न ही अखंड पदार्थ है।" " हेतुमे तीन रूपत्व और पंचं रूपत्व माननेवाले वादी एक पदार्थके ही सत्सत्वको किसलिये नहीं मानते ?" तथा जैसे एक ही पुरुषों पुत्रत्व, पितृत्व, वगैरह अनेक सम्बन्ध भिन्न भिन्न अपेक्षाले वाधारहित रीतिसे घट संकते हैं उसी प्रकार अनेकान्त मार्गमें भी द्रव्यकी अपेक्षासे सब एक हैं और पर्यायकी अपेक्षाले अनेक हैं, यह सब कुछ फिसी तरहका विरोध आये विना ही घट सकता है । ऐसे घटनेका कारण यह है कि इसमें भिन्न भिन्न निमित्त रहे हुये हैं। यदि यह सब एक ही अपेक्षासे या एक ही निमित्तको लेकर, घटाया जाय तो कदापि नहीं घट सकता । क्योकि विरोधका मूल एकही अपेक्षामें या एक ही निमित्तमे रहा हुआ है। भिन्न भिन्न अपेक्षाओं में या भिन्न भिन्न निमित्तोंमें विरोधकी गन्धं तक नहीं आ सकती। यदि नित्यानित्यरूप अनेकान्त नं माना जाय तो आत्मामें सुख, दुःख, नरत्व, या देवत्व वगैरह भाव भी घट नहीं सकते। जैसे एक ही स्थिर सर्पकी फणावाली अवस्था और फणारहित अवस्था ये दोनों अवस्थारूपमें परस्पर विरुद्ध है तथापि द्रव्यकी अपेक्षासे इन दोनोंका विरोध टिक नहीं सकता । जैसे एक ही अंगुली टेढ़ी होती है और सीधी भी होती है, अर्थात् उसके सीधेपनका नाश होकर उसके स्थानमें टेढ़ापन आता है, और उसका अंगुलीपन सदैव स्थिर रहता है। जैसे गोरस मैका दूधपन मिटकर उसके स्थानमें दधित्व--दहीपन आता है और गोरसत्व कायम रहता है, यह संब ही प्रत्यक्ष वगैरह अनेक प्रमाणोसे जाना जा सकता है और इस प्रकार पदार्थमात्रका द्रष्यत्त्व और पर्यायत्व निश्चित हो चुका है । इस टीकाको धनानेवाले श्रीगुणरत्नसूरि स्वयं 'परहेतुतमोभास्कर' नामक घादस्थलका वर्णन करनेवाले हैं, उसमें यह बात बतलाई जायगी कि प्रत्येक दर्शनमै अपने २ इष्टमतको साधनेके लिये जो हेतु बतलाये जाते हैं वे समस्त हेतु अनेकान्तवादका आश्रय लिये

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