Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 226
________________ २०८ जैन दर्शन कार्यरूपताको त्रिकालशून्य ही कहा जाय तो उसका प्रभाव ही हो जायगा और यदि श्रर्थरूप कहा जाय तो वह प्रत्यक्ष आदिसे भी जानी जा सके ऐसी होगी । अब यदि उसे दोनों रुपये कहा जाय अर्थात् कार्यताको त्रिकालशून्यत्वमें और अर्थज्ञानको करानेवाली ऐसे दो विरुद्ध धर्मवाली माना जाय तब हीं वह 'नोदना' का विषय हो सकता है । अतः नोदनाकी विषयताको सावित करनेके लिये अनेकान्तपक्षका स्वीकार करना यह सहज हकीकत है, अर्थात् मीमांसा - मतवाले भी अनेकान्तपक्षका ही स्वीकार कर रहे हैं। अब कितनी एक ऐसी युक्तियाँ और उदाहरण बतलाते हैं कि जो वौद्ध वगैरह सर्व दर्शनोंको सम्मत हैं और जो अनेकान्त वादका समर्थन करते हैं - १ सर्वदर्शनवाले यह मानते हैं कि संशयज्ञानमें दो प्रकारके भास होते हैं, इस मान्यतासे वे अनेकान्तवादका अनादर नहीं कर सकते । २ एक ही अनुमान प्रमाण में साधकता और बाधकता ये दो विरुद्ध धर्म रहे हुये हैं, अर्थात् एक ही अनुमान अपने पक्षका साधक है और दूसरे पक्षका बाधक है। ऐसा माननेवाले प्रामाणिक अनेकान्तवादका अनादर कैसे कर सकते हैं ? २. ३ मोरके अंडे में नील वगैरह अनेक वर्ग रहे हुये हैं, वे समस्त वर्ण कुछ एकरूप नहीं कहे जा सकते एवं अनेकरूप भी नहीं कहे जा सकते, परन्तु किसी अपेक्षासे एकरूप और किसी अपेक्षासे अनेकरूप कहे जा सकते हैं । यह भी अनेकान्तवादके अनुसरण से ही माना जा सकता है । इस विषयमें अन्य ग्रन्थों में भी इस प्रकार कहा हुआ है-"जैसे मोरके अंड़ेमें नीलादि अनेकवर्ण रहे हुये हैं वैसे ही एक ही घटमें परस्पर मिलकर नामघटत्व, स्थापना घटत्व, द्रव्य घटत्व और भाव घटत्व, ये समस्त धर्म रहे हुये हैं । " " घट यह मिट्टीसे एक जुदा ही पदार्थ है, उसके साथ मिट्टीका अन्वय है और भेद भी है । परन्तु एकला भेद और एकला अन्वय नहीं है । " नरसिंह अवतारका आधा भाग, नर है " और आधा भाग सिंह है, ऐसे दो भागरुप एक पदार्थको श्रविभागत्व में नरसिंह कहा जाता है । 66 वह एकला नर

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