Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 250
________________ (२३२) श्रीमंदिरके मूल गुंभारेमें आसेपासे दक्षणकी तर्फ परतापचंदजीकी खडी नर्ति छे। उत्तरकी परतापचंदनीकी भार्याकी खडी मूरती छ। निजमंदिरके सामने पूर्वकी तर्फ पश्चिमनुखी चोतरो कराय जिण ऊपर परताचन्दजीकी त्या भायासहित सपरिवार सहीतकी नुरतीयां स्थापित किर्नी । सम्वत् १९४५ मिति मार्गसिर मुदी २ वार बुध । दशकत सगतमल जेठमलाणी बाफनाका । शुभं । अष्टकर्म वन दाहके भये सिद्धजिनचंद । ता सम जो अप्पा गिणे ताकुं वंदे चंद ॥ कर्मरोग ओपधसमी ग्यानसुधारस वृष्टि । शिदनुख अमृत वेलडी जय जय सम्यक्हाष्ट ॥ एहीज सद्गुरु सीख छ एहीज शिवपुर नाग । लेजो निज ग्यानादि गुण करजो परतुण भाग ।। भेद ग्यान श्रवण भयो समरस निरमलनीर । अन्तर धोबी आतमा धो निजगुण चीर ॥ कर दुःख अंगुरी नेनदुःख तन दुःख सहज सनान । लिख्यो जात है कठणतुं शठ मानत आशान ॥ • ॥ इत्यलम् ॥ - - ऐतिहासिक दृष्टि. १ श्री तीर्थ केशरियाजी जव ध्वजादण्ड जीर्ण हो जाता है तब श्वेताम्बर जैनिओं की तरफसे ही श्वेताम्बर विधिके अनुसार नया दण्ड चढाया जाता हैं। इस तरह सं. १६१५ में फिर सम्वत् १७४१ में और उसके बाद सं. १८८९ में श्वेताम्बरिओं की ओरसे नया ध्वजादण्ड चढाया गया था । इस प्रकारक प्रमाण मिलते हैं । अन्तिम ध्वजादण्ड सं. १८८९ में इन्दौरदीवानके पूर्वज वाफणासाहेब जोरावर मलजीके पूत्र सुलतानचन्दजीने मार्गशीर्ष शु. १० के रोज चढाया था। इस प्रकार का उल्लेख इस पल भी जीर्ण होनेसे निकाल डाले हुए ध्वजदण्ड पर मौजूद है ॥

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