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जैन दर्शन
हैं । इस तरह इस वातमें भी अनेकान्त है । अन्त कथन यही ' है कि अनेकान्त शासन प्रामाणिक और इष्ट एवं दोप रहित है ।
वौद्ध वगैरह मतवाले भी अपने २ मतमें अनेकान्तवादको सन्मान देते हैं और स्वीकृत करते हैं, परन्तु यहाँ पर मात्र शब्दोंसे ही उसकी अव गणना करते हुये लज्जित नहीं होते । यह एक आश्चर्य की बात है ।
चौद्धमतवाले अनेकान्तवादको किस तरह मानते हैं, पहले यहाँ पर यह बात इस प्रकार बतलाते हैं:--
१ वे दर्शनरूप (विकल्प रहित) वोधको किसी अपेक्षासे प्रमाणरूप मानते हैं और किसी अपेक्षासे प्रमाणरूप मानते हैं । २ दर्शनके वाद होनेवाले विकल्पमें किसी अपेक्षासे सविकल्पत्व मानते हैं और किसी पेक्षा प्रविकल्पत्व । ३ एक ही चित्तको किसी अपेक्षाले किसी जगह प्रमाणरूप मानते हैं और किसी जगह अप्रमाणरूप । ४ एक ही प्रमेयको वे किसी अपेक्षासे प्रमेयरूप मानते हैं और किसी अपेक्षासे अप्रमेय रूप । ५ सविकल्पक ज्ञानको किसी अपेक्षासे भ्रमवाला और किसी अपेक्षाले भ्रम रहित मानते हैं । ६ दो चन्द्रके झानको वे किसी अपेक्षाले सत्य और किसी अपेक्षासे असत्य मानते हैं । ७ एक ही क्षणमै किसी अपेक्षासे जन्यत्व और किसी अपेक्षासे जनकत्व मानते हैं । ८ एक ही ज्ञानके अनेक आकार मानते हैं । ९ तथा समस्त पदाथको जाननेवाला ऐसा वुद्धका ज्ञान चित्ररूप क्यों न कहा जाय ? उन्हें उसे चित्ररूप ज्ञानमें अनेक प्राकार मालूम पड़ते हैं । १० एक ही हेतुमें अन्वय और व्यतिरेकको वे तात्विक मानते हैं । इस प्रकार वैभासिक वगैरह वौद्धमतके प्रभेद स्वयं स्याद्वादका स्वीकार करते हुये भी उसमें विरोध बतलावें, यह कैसा श्राश्चर्य कहा जाय ?
'सौभांतिक बौद्धमतवाले एक ही कारणको अनेक कार्योंको करनेवाला मानते हैं । यहाँ पर हम यह पूछना चाहते हैं कि जो एक सर्वथा क्षणिक कारण अनेक कार्योंको उत्पन्न करता है वह एक ही स्वभाववाला है या अनेक स्वभाववाला ? यदि एक ही
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