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प्रमाणवाद
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मनकी सहायतासे उत्पन्न हुआ बोध है। श्रुतज्ञानका स्वरुप मात्र अतीन्द्रियसे पैदा हुआ बोध है । अवधिज्ञान और मनःपर्यव 'ज्ञानका स्वरूप इन्द्रिय और मनकी सहायता विना उत्पन्न हुआ अर्थ बोध है । केवलज्ञानका स्वरूप समस्त पदार्थोंको ज्ञातत्व ( जानपन ) है । इसके सिवाय अन्य समस्त उनके पर रूप हैं। इस प्रकार वस्तुमात्रका स्वरूप और पर रूप घट सकता है और इसी से वस्तुमात्र स्वरूपकी अपेक्षासे सत् और पर रूपकी अपेक्षासे असत् कहलाती है । जैसे ऊपर बतलाया है वैसे पदार्थमात्रके और उनके विशेष धर्मोके स्वरूप तथा पररूप समझने चाहियें और इसी प्रकार घट पट वगैरह पदार्थोंके भी स्वरूपकी और पर रूपकी घटना समझ लेनी चाहिये । तथा जो सत्व धर्मरूप है वही किसी अपेक्षा धर्मी भी हो सकता है और जो धर्मीरूप है वह भी किसी अपेक्षा धर्मरूप वन सकता है । अतः वस्तुके सत्व रुपमें सत्व और असत्वकी कल्पना करनेमें धर्मोके धर्म नहीं होते, यह नियम हरकत नहीं पहुंचा सकता । क्योंकि धर्म और धर्माका व्यवहार अनादि कालीन है । तथा जैसे दिवस और रात्रीके प्रवाहमें अंकूर और वीजके पहले और दूसरे पनमें एवं अभव्य और संसारके सहवासमें अनवस्थाका दूषण चरितार्थ नहीं हो सकता । वैसे सत्वमें भी दूसरे सत्वकी कल्पना करनेमें अनवस्थाका दूषण सामने नहीं आ सकता । इसी प्रकार नित्य और अनित्य वगैरह की चर्चा भी अनवस्था नहीं आ सकती । तथा व्यधिकरण नामक दूषण भी नजदीक नहीं फटक सकता, क्योंकि जिस तरह एक ही फलमें रूप और रस दोनों रहते हैं वैसे ही एक ही वस्तु सत्व और असत्व दोनों रहते हैं । यह बात प्रत्यक्ष तौरसे जानी जा सकती है। एवं संकर और व्यतिकर नामक दोष भी किसी प्रकारकी हरकत नहीं पहुंचा सकते क्योंकि जैसे मेचक ज्ञान एक है तथापि उसके स्वभाव अनेक होनेपर भी उसमें ये दोष प्रचलित नहीं होते । वैसे ही एक वस्तु अनेक धर्म होनेपर उसे ये दोष किस तरह हरकत पहुँचा सकते हैं? तथा अनामिका अंगुली एक ही समय कनिष्टा अंगुलिकी अपेक्षा छोटी और मध्यमा अंगु
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