Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 216
________________ जैन दर्शन १९८ करनेवाले धर्म भी भिन्न भिन्न अपेक्षासे घट सकते हैं । अतः इस बातमें किसी प्रकारके विरोधकी गंध तक भी नहीं था सकती । तथा जो संशयका दुपण लगाया गया है वह भी यथार्थ नहीं है क्योंकि वस्तु मात्र रहा हुआ सत्व और असत्व सर्वथा स्पष्ट तौर से मालूम हो सकता है । अतः वस्तुके स्वरूप में संदेहको भी स्थान नहीं मिलता । संशय तो तब ही हो सकता है कि जहाँ स्पष्टतापूर्वक वस्तुका स्वरूप मालूम न हो सकता हो । आपने जो श्रावस्थाका दोप वतलाया है वह भी निर्मूल ही है । क्योंकि सत्व और असत्व वगैरह वस्तुके ही धर्म हैं परन्तु वे कुछ धर्मके धर्म नहीं हैं। धर्मोको धर्म नहीं होते ' ऐसा कहा हुआ तथा सत्व और असत्व वस्तु के ही धर्म हैं, यह एकान्त पूर्वक कहनेसे अनेकान्तवादको कुछ भी हानि नहीं पहुंच सकती । क्योंकि विशुद्ध एकान्त वगैरे अनेकान्तवाद भी संभवित नहीं हो सकता । नयकी अपेक्षाले जाने हुये एकान्तरूप निर्णयको प्रमाणकी अपेक्षाले अनेकान्तरुप कहते हैं और इस विपयमें किसी प्रकारका दोष भी मालूम नहीं होता । तथा प्रमाणकी अपेक्षासे सिद्ध की हुई सद्रूपतामें भी सत्व और असत्वकी कल्पना की जाय तो उसमें कुछ दोष नहीं श्राता । इसमें जो अनवस्था बतलाई गई है वह कुछ दूषणरूप नहीं है । बल्कि वह प्रत्युत अनेकान्तवादकी शोभा में वृद्धि कर सकती है। क्योंकि वह मूल वस्तुकों हानि नहीं पहुंचा सकती। हां, जो अनवस्था मूलको ही हानि पहुंचाती हो वह बेशक दूपणरुप है । देखिये ! प्रत्येक पदार्थ अपने रूपमें सत् है और दूसरेके रूपमें असत् है । जीवका स्वरूप उसका सामान्य उपयोग - ज्ञान है, इससे भिन्न उपयोग उसका पर रूप है । उपयोगका स्वरूप पदार्थका निश्चय है, दर्शनका स्वरूप स्पष्ट बोध है और इससे भिन्न २ वे सबके पर रूप हैं । परोक्षज्ञानका स्वरुप अस्पष्टता है और सर्वथा प्रत्यक्ष ज्ञानका स्वरुप स्पष्टता है । दर्श-. नका स्वरूप चक्षुजन्य और प्रचक्षुजन्य आलोचन है, अवधि - दर्शनका स्वरूप अवधि आलोचन है, वाकीके सब इनके पर रूप हैं । परोक्ष भी मतिज्ञानका स्वरुप इन्द्रिय और अतीन्द्रिय याने

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