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जैन दर्शन
जाता । क्योंकि निश्चय करानेवाले शानको ही प्रमाणरूप कहा : गया है। जो ज्ञान किसी प्रकारके विकल्पसे राहत है अर्थात् बालकके समान ज्ञान, और शंका, भ्रम तथा अनिश्चय ये सव ही किसी प्रकारका निश्चय न करानेवाले होनेसे प्रसाणरूप नहीं हैं।. क्योंकि निश्चय करानेवाले ज्ञानको ही प्रमाणरूप कहा गया है। जो शान बाहरके पदार्थके साथ सम्बन्ध रखनेवाला किसी प्रकारके निश्चयकोन कराता हो वह भी प्रमाणरूप नहीं क्योंकि यहाँपर . अपने आपके और दूसरके स्वरूपका निश्चय करानेवाला ही शान : प्रमाणरूप माना गया है। जो ज्ञान माघ दूसरके ही निश्चयको मालूम कराता है और स्वयं अपने आप ही अपना स्वरुप नहीं जान सकता वह भी प्रमाणरूप नहीं है । क्योंकि यहाँपर तो दोनोंके । (अपने और परके ) स्वरुपका निश्चय करानेवाला ज्ञान प्रमाणतया स्वीकृत किया गया है। "अर्थकी उपलब्धिमें जो हेतुभूत। हो उसका नाम प्रसाण" यह और ऐसे ही दूलरे भी प्रमाणके बहुतसे लक्षण बरावर नहीं हैं, अतएव एक निर्दोष लक्षण ऊपर कथन किये सुजव बतलाया है। संशय और भ्रम वगैरह संशय . रूपमें और श्रम रूपमें सत्य होनेसे उनका भी यहाँपर प्रमाणमें समावेश किया जायगा। क्योंकि स्व पर व्यवसायीका दूसरा अर्थ . इस प्रकार भी होता है-छापने योग्य ऐसा जो परःपदार्थ उलका', निश्चय करानेवाला ज्ञान वह प्रमाणरूप है, इल अर्थमें चाहे जैसे । ज्ञानमात्रका समावेश हो सकता है । अव प्रमाणकी संख्या और उसके द्वारा मालूम होते हुए विषयोंको बतलाते हैं और उसी में । प्रमाणको विशेष बतलाया जायगा- प्रमाण दो हैं-एक प्रत्यक्ष और दूसरा परोक्ष । इन प्रमाणोंके द्वारा अनन्त धर्मवाली वस्तु जानी जा सकती है। . . प्रत्यक्ष शब्दके दो अर्थ हैं और वे इस प्रकार-अक्ष याने इन्द्रिय अर्थात् जो ज्ञान इन्द्रियों के द्वारा हो उसका नाम प्रत्यक्ष, यह तो . प्रत्यक्ष शब्दका व्युत्पत्ति अर्थ है । परन्तु इसका शास्त्र में प्रसिद्ध : अर्थ दूसरा है और वह इस तरह लिखा है-जो ज्ञान प्रत्यक्ष है उसे ।