Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

View full book text
Previous | Next

Page 202
________________ १८४ जैन दर्शन अर्थात् प्रमाणका विषय अनन्त धर्मवाली ही वस्तु है, यह विषय अव सर्वथा विवादरहित हो चुका है। अव सूत्रकार स्वयमेव ही प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणका स्वरुप इस प्रकार बतलाते हैं जो ज्ञान अपरोक्षतया अर्थको ग्रहण करता है उसका नाम प्रत्यक्ष है और इसके सिवायका दूसरा ज्ञान सिर्फ अर्थके ग्रहण की अपक्षासे परोक्ष है यों समझना चाहिये..५६ अपरोक्षतया याने साक्षात् अस्पष्टतया या संदेहरूपसे नहीं। अर्थ याने ज्ञानका निजी स्वरूप और दूसरे समस्त वाहरके घट, . चटाई, पुस्तक, वगैरह पदार्थ--जो दोनों ऊपर बतलाये गये हैं उनके सिवाय जो दूसरा लक्षण प्रत्यक्षके साथ लगाया जाता है वह यथार्थ मालूम नहीं देता। प्रत्यक्षज्ञान परोक्षज्ञानसे सर्वया भिन्न प्रकारका है इसी लिये यहाँपर 'अपरोक्षतया' शब्दका सम्बन्ध प्रत्यक्षके साथ किया गया है। कितने एक ज्ञान वादियोंका अभिप्राय इस प्रकार है, वे कहते हैं कि हे पाहतो! (जैनियों ! ) आए पदार्थोको कहाँसे लाये ? इस संसारमै ज्ञानके सिवाय दुसरा कुछ भी नहीं है, जो देखने में आता है वह सब कुछ एक ज्ञानरूप ही है, अतः श्राप अर्थ याने सिर्फ एकले ज्ञानका स्वरुप ही कहो, परन्तु अर्थ याने अन्य समस्त पदार्थ, ऐसा कहना अनुचित है। क्योंकि सब कुछ मात्र एक ज्ञान रूप ही होनेसे अन्य कोई उलले जुदा पदार्थ नहीं है । ज्ञानवादियोका यह अभिप्राय ठीक नहीं है और ऐसा जतानेके लिये ही सूत्रकारने सूत्न श्लोको 'ग्रहणक्षयः' अर्थके ग्रहणकी अपेक्षासे यह शब्द रख्खा हुआ है । यह शब्द रखनेसे ज्ञान, ग्रहण और पदार्थ एवं तीनों ही पदार्थ सिन्न.२ मालूम हो सकते हैं, अतएव यह शब्द ज्ञानवादियोंके अभिप्रायकीअनुचिततासमझा सकता है।तथा जैसे ज्ञान अपने स्वरूपका ग्रहण करता है वैसे ही वाहरके पदार्थोंका भी ग्रहण कर सकता है। यदि ऐसा न हो तो इन समस्त जान-.

Loading...

Page Navigation
1 ... 200 201 202 203 204 205 206 207 208 209 210 211 212 213 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251