Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 211
________________ प्रमाणवाद सद्रूपताका जो स्वरूप बतलाया है वह यथार्थ नहीं है और उसकी यथार्थता अन्य ग्रन्थों परसे समझ लेनी चाहिये।पदार्थ मात्र उत्पत्ति, स्थिति और विनाशरूप होनेसे ही विद्यमानता रख सकता है और ऐसा होनेपर ही प्रत्यक्ष एवं परोक्षप्रमाणकेद्वारावहमालूमहोसकता है। वस्तुमात्रमै सत्व, शेयत्व, प्रमेयत्व और वस्तुत्व वगैरह अनन्तधर्म रहे हुये हैं, अर्थात् वस्तुमान अनन्त धर्मवाली, अनन्त पर्यायरूपं और अनेकान्त रुप है। वस्तु शब्दका अर्थ यहाँपर जीव और अजीव वगैरह समझना चाहिये कि जिसके विषयमें पहले बहुत कुछ कहा जा चुका है। जो पदार्थ उत्पत्ति, विनाश और स्थिति इन तीन धर्म सहित हो वही अनन्तधर्मवाला हो सकता है, और ऐसा ही पदार्थ प्रमाणके द्वारा जाना जा सकता है। पदार्थमात्रमें अनन्त धर्म रहते हैं। इस बातकी सिद्धिके लिये पहले वहुत कुछ लिखा जा चुका है। इस विषयमें अब यहाँपर यह एक अनुमान ही पर्याप्त है। पदार्थमान में उत्पाद, नाश और स्थिरता ये तीनों धर्म रहे हुये हैं अतएव उसमें अनन्त धर्म रह सकते हैं। जिस पदार्थमें अनन्त धर्म न हो; उसमें ये तीन धर्म भी नहीं रह सकते। ऐसी सर्वथा असत् वस्तु तो मात्र एक आकाश कुसुमकेसी ही है। प्रत्येक पदाथैमें उसके धर्म पैदा होते हैं और वे ही नाश पाते हैं एवं उन धर्मोंको धारण करनेवाला धी द्रव्यरुपसे सदैव स्थिर रहता है। धर्म और धर्मी इन दोनों में किसी अपेक्षासे अभेद भाव होनेसे और धर्मी सदैव स्थिर रहनेवाला होनेके कारण वेधर्म भी किसी अपेक्षासे शक्तिरूपमें सदैव स्थिर रहते हैं। यदि ऐसा न माना जाय तो उन घाँका नाश हो जानेसे धर्मीका भी नाश हो जाना चाहिये। अतः फिली अपेक्षासे धर्माको भी स्थिर मानना, यह समुचित ही है। धर्म और धर्मीके वीचमें सर्वथा भिन्नत्व या सर्वथा एकत्व नहीं होता,क्योंकि उन दोनों में इस प्रकारका सम्बन्ध मालूम नहीं देता। यदि धर्म और धर्मी में सर्वथा भिन्नत्व या एकत्वमानाजाय तो उन दोनोंका-धर्मधर्मीभाव ही नहीं घट सकता। अतः उन दोनोंका किसी अपेक्षासे भिन्नत्व और किसी अपेक्षासे एकत्व मानना योग्य और दूषणरहित है।

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