Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 203
________________ प्रमाणवाद १८५ नेवालोंको जो कुछ निश्चित भास हुश्रा करता है वह किस तरह हो? यदि इसके सामने यों कहा जाय कि सबको मात्र एक चित्रूपका-शानका ही भास होता है परन्तु पदार्थाका भास नहीं होता, अतः एकला ज्ञान ही है और उसके सिवाय अन्य कोई पदार्थ नहीं, यह कथन किस तरह असत्य गिना जाय ? इसका उत्तर इस प्रकार है-यदि ज्ञानवादी संसारमें एकला शान ही माने और अन्य कुछ अस्तित्ववाला न माने तो फिर वे जो जुदे २ ज्ञानके सन्तान (प्रवाह) मानते हैं वे किस तरह माने जायँ ? तथा वे खुद ही यह कहते हैं कि जैसे स्वमका ज्ञान किसी प्रकारके आलम्बनकी गरज नहीं रखता वैसे ही संसारमें पैदा होते हुये दूसरे समस्त शान भी किसी तरहके आलम्बनकी ( पदार्थकी) गरज नहीं रखते। इसी प्रकार और उदाहरणसे उनके माने हुय भिन्न २ ज्ञानसंतान भी असत्य सावित होते हैं और उन्होंकी दशा स्वप्नके शान जैसी ही होगी। अतः ज्ञान और अर्थ ( पदार्थ) इन दोनोंको वास्तविक और भिन्न २ मानना चाहिये । जो प्रत्यक्षका स्वरूप बतलाया है उससे भिन्न प्रकारके शानको परोक्ष समझ लेना चाहिये, क्योंकि उस ज्ञानके द्वारा अर्थका ग्रहण तो होता है, किन्तु वह अस्पष्टतया होता है। यद्यपि परोक्ष ज्ञान भी अपना स्वरूप अपने आप ही जाननेवाला होनेसे प्रत्यक्षरूप है, परन्तु मात्र अर्थके ग्रहणकी अपेक्षासे ही उसे परोक्ष 'समझना चाहिये। तात्पर्य यह है कि यद्यपि परोक्ष ज्ञान अपने स्वरूपका ग्रहण स्वयं ही करता है-अतः वह प्रत्यक्षरूप है तथापि पदार्थको ग्रहण करनेमें चिन्ह और शब्द वगैरहकी अपेक्षा रखनेवाला होनेसे वह अस्पष्टतया उपयोगमें आता है और इसी लिये उसे परोक्ष कहते हैं। ... पहले वस्तुका अनन्त धर्म धारकत्व समझाया जा चुका है, अव उसी विषयको विशेषतः मजबूत करनेके लिये शास्त्रकार इस प्रकार फर्माते हैं

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