Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 194
________________ १७६ जैन दर्शन सव ही घटके अनन्त स्वधर्म हैं और जिन जिन पदार्थोंके साथ उसका संयोग और वियोग नहीं हुआ येसे पदार्थ भी अनन्त हैं अतः उनकी अपेक्षासे याने उनके रूपसे घड़ा असत् है और उसके परधर्म भी अनन्त हैं । यह समस्त विचार शब्द, संख्य, और संयोग तथा विभागकी अपेक्षासे किया गया है । अव परिमाणकी अपेक्षाले घटका विचार किया जाता है- . उन पदार्थों की अपेक्षाले घड़ा छोटा, बड़ा, लवा, और टेढ़ा होता है और इस प्रकार उसका नाम अनन्त भेदवाना हो सकता है, अतः वे सव घटके स्वधर्म हैं और जिनसे वह घड़ा जुदा पड़ता है उस अपेक्षासे असत् है और वे सव घटके परधर्म भी अनन्त हैं। उन उन पदार्थोकी अपेक्षा घड़ा नजीक, अधिक नजीक, सर्वथा नजीक, दूर, अधिक दूर, और सर्वथा दूर, तथा उसमें भी एक कोस, दो कोल तथा एक योजन, दो योजन और असंख्य योजन भी हो सकता है और इस प्रकार दूर एवं नजदीक की अपेक्षा भी घटके स्वपर्याय अनन्त हैं। तथा किसी पदार्थकी अपेक्षा वह घड़ा पूर्वमें, किसी पदार्थकी अपेक्षा पश्चिममें एवं किसी पदार्थकी अपेक्षा उत्तर दिशामें है तथा किसी की अपेक्षा ईशान या वायव्य कोनमें है, इस लिये इस रीतसे दिशा और विदिशाओकी अपेक्षासे भी घटके असंख्य स्वपर्याय घट सकते हैं। काल की अपेक्षासे भी घटके स्वधर्म अनन्त हो सकते हैं, क्योंकि कालके. क्षण, लव, घड़ी, दिन मास वर्ष और गुण वगैरह बहुत ही भेद होते हैं और उन भेदोंकी अपेक्षा घड़ा अन्यान्य सर्व द्रव्योंसे पूर्व और पर हो सकता है, अतएव उसके स्वधर्म अनन्त बतलाये हैं। ज्ञानकी अपेक्षा भी घटके स्वधर्म अनन्त हो सकते हैं। क्योंकि जीव अनन्त हैं और वे सब अपने अपने ज्ञानके द्वारा उस घटको भिन्न भिन्न रीतसे जान रहे हैं । कोई जीव स्पष्टतया जानता है, कोई अस्पष्टतया, कोई दूरतया, और कोई समीपतया जानता है, इत्यादि । तथा वह घड़ा समस्त जीवोंके अनन्तानन्त भेदवाने : सुख, दुःख, त्याग करनेकी वुद्धि, ग्रहण करनेकी बुद्धि, तटस्थ रहनेकी बुद्धि, पुण्य, पाप, कर्मका वन्ध, किसी प्रकारका संस्कार

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