Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 198
________________ १८० जैन दर्शन + सम्बन्धी किस तरह हो सकते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है— सम्वन्धके दो प्रकार हैं, एक तो अस्तिपनसे रहनेवाता सम्बन्ध और दूसरा नास्तिपनसे रहा हुआ सम्बन्ध । जिस तरह घटका उसके रूप आदि गुणोंके साथ सम्बन्ध है वैसे ही घटके स्वपर्यायोंके साथ उसका सम्बन्ध अस्तिपनसे है और परपर्याय घटमें न रहनेके कारण उनका घटके साथ सम्बन्ध नास्ति पनसे है । जिसे घटका सम्वन्ध न होनेपर महिरूप पर्यायके लाथ है वैसे परपर्यायके साथ भी उसका ऐसा ही सम्बन्ध है । विशेषता सिर्फ इत नी ही है कि वे परपर्याय उसमें रहते नहीं, अतएव उनका सम्बन्ध नास्तिपनसे याने प्रभावरूपले कहा जाता है और ऐसा होनेपर ही वे परपर्याय कहलाते हैं । यदि यहाँपर यह कहा जाय कि जिस तरह धन रहित गरीव धनवान् नहीं कहलाता वैसे ही जो पर्याय घटके नहीं वे घटके किस तरह कहे जा सकते हैं ? तथा जो वस्तु जिसकी न हो तथापि वह उसकी कहलाती हो तो फिर लोक व्यवहारका भंग होगा, अतः वे परपर्याय घटके किस तरह कहे जायें ? इस प्रश्नका उत्तर इस प्रकार है-जैसे धन और गरीव इन दोनों का सम्बन्ध तो है परन्तु नास्तित्व रूपले है वैसे ही परपर्याय और घटके वीचमें सम्बन्ध तो अवश्य हैं परन्तु वह सम्ब न्ध नास्तित्व रूपले है । नास्तित्वरूपले सम्बन्ध होनेमें किसी प्रकारकी वाधा मालुम नहीं होती । क्योंकि बोलनेवाला बोलता है कि इस गरीबके धन नहीं है, अर्थात् गरीब और धनके बीच में जो नास्तित्वका सम्बन्ध है उसी प्रकार यह घड़ा लेखनी रूपने नहीं है याने घट और लेखनके वीच परस्पर नास्तित्वका सम्बन्ध है यह स्पष्ट रीतिले भालित होता है । हां यह कहना ठीक है कि घटका उन परपर्यायोंके साथ अस्तित्वका सम्बन्ध नहीं है, परन्तु उन दोनोंमें सर्वथा सम्वन्ध ही नहीं यों नहीं कहा जा सकता | तथा परपर्यायोंके साथ घटके नास्तित्वका सम्बन्ध हो इसमें किसी प्रकारके लोकव्यवहारको भी हरकत नहीं था सकती । कदाचित् यो कहा जाय कि नास्तित्व तो अभावरूप याने असदू रूप

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