Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 197
________________ प्रमाणवाद रिकता, क्रोध वगैरह असंख्य परिणामता, हास्य, रति, अरति, भय, शोक, और धृणा, स्त्रीत्व, पुरुषत्व, नपुंसकत्व, मूर्खत्व; अन्धत्व, और बधिरत्व, वगैरह समस्त आत्माके कमभावी (कमसे पैदा होनेवाले) धर्म हैं। जिस आत्माने मोक्ष प्राप्त कर लिया है उसमें सिद्धत्व, सादि अनन्तता, शान, दर्शन, सम्यक्त्व, सुख और वीर्य एवं अनन्त द्रव्य, क्षेत्र, काल, और सर्व पर्यायाँका जानकार पन तथा देखनापन है, तथा अशरीरत्व, अजर-अमरत्व, अरूपत्व, अरसत्य, अगन्धत्व, अस्पर्शता, अशब्दत्व, निश्चलता, निरोगता, अक्षयता, प्रवाधता, और पूर्वमें भोगी हुई सांसारिकदशामें जो जो जीवके धर्मका अनुभव किया हो वे सब इस प्रकार यात्मामें भी अनन्त धर्म समझलेने चाहिये । धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, और कान इन सबमें अनुक्रमसे असंख्य प्रदेशत्व, अनन्त प्रदेशत्व, अप्रदेशत्व, सर्व जीवों और पुगलोंको प्रमशः गति एवं स्थितिमें अवगाह देनेमें और नया पुराना होने में सहायक पन, अवस्थितता, अनादि अनन्तता, अरूपीपन, अगुरू. लघुता, एक स्कंधता, जाननेफी योग्यता, अस्तित्व और द्रव्यत्व वगैरह अनन्त धर्म इन अरूपी पदार्था में समझलेने चाहिये । जो पदार्थ पौगालिक हैं उनमें घटके उदाहरणके समान ही अनन्तानन्त स्व, पर, पर्याय समझलेने चाहिये । शब्दों में उदात्तत्व, अनुदात्तत्व स्वरितपन, विवृतता, संवृतता, घोपत्व, अघोपत्व, अल्पप्राणता, महामागता, अभिलाप्यता, अनभिलाप्यता, अर्थकी वाचकता और अघाचकता तथा क्षेत्र और काल वगैरहके भेदके कारण अनन्त अर्थकी झापकता इत्यादि धर्म घटा लेने चाहिये । तथा प्रात्मा वगैरह समस्त पदार्थोंमें नित्यता, अनित्यता, सामान्य, विशेप, अस्तित्व, अनस्तित्व, अमिलाप्यता और अनभिलाप्यता, और इसके उपरान्त अन्य वस्तुओंके प्यात्रीि धर्म भी जान लेने चाहिये। अब कदाधित् यह कहा जाय कि जो धर्म घटके निजके हैं वे तो उसके स्वपर्याय कहलाते हैं सो ठीक, परन्तु जो परपर्याय हैं और घटसे भिन्न पदार्थीमें रहनेवाले हैं वे-परपर्याय घटके

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