Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 193
________________ . प्रमाणवाद १७५ 'पर्याय हो सकते हैं । तथा इसी प्रकार सुगन्ध, गुरुता, लघुता, मृदुता, कर्कशता, शीत, गरम, चिकना, रूक्ष, इन सबसे भी ऊपर कथन किये मुजव घटा लेना चाहिये । क्योंकि अनन्त प्रदेशवाले एक स्कन्ध (पदार्थमें) आठों ही स्पर्श हो सकते हैं, ऐसा सिद्धान्तमें कथन किया है, अतः उस घटमें उन आठो स्पर्शीको भी. घटा लेना चाहिये । अथवा सुवर्णधातु ही ऐसी है कि जिसमें अनन्त कालातिक्रमसे पांचों वर्ण, दोनों गन्ध, छहो रस और आठों स्पर्शीका समावेश समझलेना चाहिये । इन पूर्वोक्त गुणोंकी तरतमताका विभाग भी घटालेना चाहिये और उन सयको अनन्तानन्त समझलेना चाहिये । तथा अन्यान्य पदार्थोके वर्ण श्रादि गुणोंसे उस घटके गुणोंको व्यावृत--जुदे जानना चाहिये और इस अपेक्षासे घटको असत् समझना चाहिये । इस प्रकार यहाँपर अनन्त स्वधर्म और अनन्त परधर्म घट सकते हैं। घट अर्थको बतलानेके लिये भित्र २ अनेक भाषाके भेदोंके कारण 'घट वगैरह अनेक शब्दोंका व्यवहार चला आ रहा है। इस अपेक्षासे घट सत् है और वे सव ही घटके स्वधर्म हैं। तथा अन्य शब्दोंसे घटका भाव मालूम न किया जा सकनेसे उस अपेक्षासे घट अलत् है और वे. सव घटके परपयर्याय हैं एवं वे दोनों ही अनन्त हैं घटके जो जो स्वधर्म और परधर्म कहे हैं उन धर्मोको मालूम करानवाले जितने शब्द हैं वे सब ही घटके स्वधर्म हैं और घटके धर्मको वतलानेवाले शब्दोंके सिवाय जो अन्य शब्द हैं वे समस्त घटके परधर्म हैं। कितने एक द्रव्यों पदार्थों की अपेक्षासे वह घट पहेला, दूसरा, तीसरा और चौथा इत्यादि कमसे. यावत् अनन्तवाँ है और यह समस्त संख्या घटके स्वधर्म हैं एवं इसके विना भी अपेक्षासे घड़ा असत् है एवं वे समस्त उसके. स्वधर्म और परधर्म अनन्त हैं अथवा उस घटसे जितने परमाणु.रहे हुये हैं, वह समस्त. संख्या घटका स्वधर्म है और बाकीकी समस्त संख्या घटका परधर्म है । इस प्रकार भी उसके स्वधर्म :और परधर्म अनन्त घट सकते हैं। आजतक अनन्त कालसे. उस घड़ेके साथ अनन्त पदार्थोके अनेक संयोग और वियोग हो चुके हैं, वे

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