Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 183
________________ प्रमाणवाद १६५ नाम ईहा है। जो कुछ भास ईहामें होता है उस तरफके विशेष निश्चयका नाम वाय है और उस अवायमें होनेवाले भासका जो अधिक समय तक स्मरण रहता है उसे धारणा कहते हैं । इन चारों प्रकार में परस्पर हेतुफल भावका सम्बन्ध रहा हुआ है । अर्थात् अवग्रहज्ञान ईहा ज्ञानका निमित्त है और ईहाज्ञान श्रवग्रह ज्ञानका फल है । इसी तरह ईहाज्ञान श्रवायज्ञानका निमित्त है और वायज्ञान हा ज्ञानका फल है एवं श्रवायज्ञान धारणाज्ञानका निमित्त और धारणाज्ञान श्रावायज्ञानका फल है । इस प्रकार पूर्व में उत्पन्न हुआ ज्ञान प्रमाणरूप - निमित्तरूप है और पीछे होनेवाला ज्ञान फलरूप है । इस तरह एक भक्तिज्ञानके ही ये चारों भेद हैं ऐसा समझना चाहिये । यदि ऐसे इन चारोंमें इसी अपेक्षासे भेद और मोद न माना जाय तो चारोंमें परस्पर रहा हुआ हेतु, फल, भाव, सम्बन्ध, घट नहीं सकता। क्योंकि जो सर्वथा ऊँट और हाथी के समान जुदे हो वे परस्पर हेतुरूप और फलरूप नहीं हो सकते एवं जो सर्वथा एक ही हो उनमें भी हेतु फलभाव नहीं घट सकता । इसी लिये उपरोक्त इन चारोंमें भेद और अभेद दोनों समझने चाहियें । धारणारूप मतिज्ञान विवादरहित स्मरणशक्तिका कारण है अतः वह प्रमाण रूप है। स्मरणरूप मतिज्ञान दूषणरहित विचारशक्तिका कारण है अतः वह प्रमाणरूप है । विचाररूप मतिज्ञान दूषणरहित तर्क शक्तिका निमित्त है, इस लिये वह प्रमाणरूप है और वह तर्करूप मतिज्ञान अनुमान प्रमाणका कारण है इस लिये प्रमाणरूप है, एवं वह अनुमानरूप मतिज्ञान लेनेकी या छोड़नेकी या तटस्थ रहनेकी वृत्तिका कारण है । अतः वह प्रमाणरूप है । शामें कहा है कि "मति (धारणा) स्मृति ( स्मरण ) संज्ञा (विचार) चिंता (तर्क) और अभिनिबोध (अनुमानरूप बोध ) ये सब ही प्रायः एक समान भावको सूचित करते हैं " । अर्थात् इन समस्त शब्दोका लक्ष्यविषय लगभग एक जैसाही होता है । इस ज्ञानका निमित्त जबतक किसीका शब्द ( बोलना ) न हो तबतक उसका नाम मतिज्ञान है । कितने एक कहते हैं कि " जब ज्ञानका निमित्त शब्द बनता है तब उसका नाम श्रुतज्ञान होता है । वह

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