Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 189
________________ १७१ प्रकार करते हैं-" इस प्रमाणद्वारा अनन्त धर्मवाली वस्तु जानी जा सकती हैं " । अर्थात् उपरोक्त प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणका विषय वह अनन्त धर्मवाली वस्तु हैं । जिसका किसी प्रकार नाप न किया जाय उसे अनंत कहते हैं । स्वभावको धर्म कहते हैं और स्वभाव दो प्रकारके हैं - एक तो वस्तुके साथ ही उत्पन्न होनेवाला और दूसरा वस्तु क्रमशः उत्पन्न होनेवाला । अथवा यो मानना चाहिये कि वस्तु मात्र अनेकान्तात्मक हैं । अनेकान्तात्मकका अर्थ इस प्रकार है-जिसके अनेक अन्त यांने धर्म स्वभाव हैं वह अनेकान्तात्मक कहलाता है । तात्पर्य यह है कि जड़ और चेतन ये समस्त पदार्थ अनन्त धर्म याने अनन्त स्वभाववाले हैं, क्योंकि उनका ज्ञान प्रमाणसे हो सकता है । इस जगह इस विषयका एक भी उदाहरण नहीं मिल सकता, क्योंकि वस्तुमात्र जड़ और चैतन्यरूप पक्षमै समा गई है । जो वस्तु अनन्त धर्नवाली नहीं है वह प्रमाणसे भी नहीं जानी जा सकती । जैसे कि श्राकाशका पुष्प । सिर्फ इस प्रकारका सर्वथा व्यतिरेकी उदाहरण मिल सकता है और यह एक ही उदाहरण पूर्वोक्त अनुमानकी सिद्धिके लिये काफी है । यह वतलाया हुआ अनुमान भी दूपण रहित है । क्योंकि इसमें किसी प्रकार के दोषको अवकाश नहीं और प्रत्यक्ष आदि प्रमाणोंसे भी इसी बात को पुष्टि मिलती है । यदि कोई यह कहे कि एक ही वस्तुमें अनन्त धर्म किस प्रकार रह सकते हैं ? इस प्रश्नका उत्तर यहाँपर मात्र सुवर्णके घड़ेके दृष्टान्त द्वारा दिया जाता है । कोई भी एक घट अपने निजी द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे रहता है और दूसरेके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षासे नहीं रहता । तथा जिस वक्त सत्व, शेयत्व और प्रमेयत्व आदि धर्मोको दृष्टिके सामने रखकर घटका विचार किया जाता है तब वह घट सदैव सत् ही है । क्योंकि वे धर्म वस्तुमात्रमें होने से उनकी अपेक्षासे प्रत्येक पदार्थ परस्पर समान है अतः उन धर्मो में अपनी या परकी कल्पना नहीं हो सकती । अव हमें उस घटका ही विशेष विचार करना चाहिये । घड़ा पुलोंके परमाणुओं से बना हुआ है, अतः वह पौगलिक प्रमाणवाद

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