Book Title: Jain Darshan
Author(s): Tilakvijay
Publisher: Tilakvijay

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Page 185
________________ प्रमाणवाद १६७ 'उससे जुदा है' और 'उसका विरोधि हैं जैसे कि 'वही यह देवदत्त है' गायके जैसागवय है,गायले जुदाभैंसाहै। यह इससे लंवा, छोटा, वारीक, मोटा, नजीक या दूर है। यह अग्नि तीव्र है, यह चंदनकी सुगन्धी है इत्यादि । इस प्रत्यभिज्ञानमें स्मरणसहित अनुमानसे अथवा स्मरणसहित शास्त्रसे पैदा हुये प्रत्यभिज्ञानका भी समावेश समझलेना चाहिये । जैसे कि यह तेज अग्नि है (जिसका ज्ञान पहले अनुमानसे हुआ था) और यह (शब्द) भी उसी अर्थको सूचित करता है (जो पहले शास्त्र के द्वारा सुना हुआ था) वगैरह । तर्कका स्वरूप इस प्रकार है-तर्कज्ञान उपलम्भ और अनुपलम्भसे पैदा होता है, (अमुक हो तब ही अमुक हो सके इस तरहकी सहचरताका नाम उपलम्भ है और अमुक न हो जब अमुक भी न हो, इस तरहकी सहचरताका नाम अनुपलम्भ है) और इनका विषय साध्य एवं साधनका सम्बन्ध है कि जो तीनों कालमें अखण्डतया रहनेवाला होता है। तर्कशानको मालूम करनेकी रोति यह है 'यह हो तव ही वह हो सकता है-'अग्नि हो तव ही धून हो सकता है और प्रशि न हो तव धूम्र भी न हो । अव अतुमानके भेद और स्वरूप बतलाते हैं-अनुमान दो प्रकारका है, एक स्वार्थ-अपने लिये होनेवाला और दूसरा परार्थ दूसरेके लिये होनेवाला । हेतुको प्रत्यक्षतया देख कर और कार्यकारणके सम्बन्धको याद करके निश्चितरूपसे उत्पन्न होनेवाले साध्यका शान स्वार्थ अनुमान कहलाता है। जिसके विना जिसकी विद्यमानता ही न हो उसे (अविद्यमानतावालेको) उसका (उसके ज्ञानका) हेतु समझना चाहिये । अग्निके विना सदैव और सर्वत्र धूम्रकी अविद्यमानता ही होती है। इसमें धूम्रको अग्निके शानका हेतु समझना चाहिये । यह हेतुका स्वरूप है। जो इष्ट याने लम्मत हो, किसी तरहके बांधरहित हो और विलकुल मालूम न हुआ हो उसका नाम साध्य है। जिस स्थानसे वैसा साध्य रहता हो उसका नाम पक्ष है । जिसके लिये उपरोक्त हेतु और पक्षका प्रयोग किया जाता है उस प्रकारके ज्ञानका नाम परार्थ अनुमान है । वह परार्थ अनुमान शब्दरूप होनेसे ज्ञानरुप नहीं कहा जा सकता, तथापि

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