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जैन दर्शन ऐसा होनेपर भी यदि वे भूतोंसे जुदी रहनेवाली वस्तुको कारण रूप माने तो उनकेही मुखसे आत्माकी सिद्धि हो सकती है। क्यों कि जो कुछ भूतोंसे जुदी वस्तु है उसका नाम आत्मा है । अतः दूसरा भी कुछ कारण है यह कहना भी दूषित मालूम पड़ता है। अव यदि यह कहा जाय कि भूत जिस शरीरके आकारको धारण करते हैं उसका कुछ कारण ही नहीं, यह कथन भी दूषित ही है, क्योंकि कारणके विना कार्यकी उत्पत्ति नहीं हो सकती। दूसरी यह बात कि जो क्रिया किसी कारणके विना ही होती हो तो या तो वह रोज होती ही रहनी चाहिये और या सर्वथा होनी ही न चाहिये। इन पूर्वोक्त दलीलोसे यह स्पष्ट मालूम होता है कि नास्तिकों का माना हुआ भूत शरीरके आकारको धारण करते हैं. और उसीसे चैतन्य पैदा होता है इस प्रकारका सिद्धान्त कदापि सत्य सिद्ध नहीं हो सकती । प्राणवायु और अपान वायुकी तो वात ही क्या? अतः चैतन्य भूतोका गुण नहीं एवं वह भूतोसे उत्पन्न भी नहीं होता, किन्तु वह आत्माका गुण है और आत्मामें ही रहता है, इस प्रकारकी मान्यता प्रमाणिक और दूपणरहित है। यह भी एक साधारण नियम है कि जिसके गुणका प्रत्यक्ष ज्ञान होता हो वह गुणवाला स्वयं भी प्रत्यक्ष ही होता है । स्मरण रखना, जाननेकी इच्छा रखना, क्रिया करनेकी इच्छा रखना, जानेकी इच्छा . करना, और किसी प्रकारका संदेह होना इत्यादि आत्माके गुणों का प्रत्येक मनुष्य प्रत्यक्षतया अनुभव कर सकता है । क्योकि हर एकको इन गुणोंका अनुभव होनेके कारण इनकी प्रत्यक्षतामें क्रिसीका भी मतभेद नहीं हो सकता । जब इन समस्त आत्मीय गुणोका हरएक को प्रत्यक्ष ज्ञान होता है तव इन गुणोंका आधार भूत आत्मा प्रत्यक्ष तया किसे नहीं मालूम होता? अतः आत्माका ज्ञान प्रत्यक्षतया हो सकता है । आत्मा प्रत्यक्ष प्रमाणसे ही सिद्ध हो सकता है, इसमें किसी प्रकारका दूषण मालूम नहीं होता कदाचित् नास्तिकोंकी तरफसे यों कहा जाय कि जिसके गुणका प्रत्यक्ष ज्ञान होता है वह गुणवान् स्वयं भी प्रत्यक्ष ही होता है. इस तरहका नियम सब जगह प्रचलित न होनेके कारण यह