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जैन दर्शन
युक्त और प्रामाणिक है । ज्ञानादि गुण हरएकके अनुभवमें श्रानेवाले होनेसे उन गुणोंका आधार आत्मा भी हरएकके अनु- . भवसे आवे यह सहज लिद्ध वात है। अव यह स्पष्ट रूपसे मालूम हो सकता है कि आत्माको माननेकी हकिकत सर्वथा निर्दोष और प्रामाणिक है। उससे विपरीत जो कुछ नास्तिकोने आत्मा. के निषेध कथन किया है वह सर्वथा असत्य और अनेक । दूषणसहित है, एवं उसमें अनेक प्रकारके विरोध भी मौजूद हैं। जैसा कि "सूर्य प्रकाश नहीं करता" " मैं नहीं हैं और मेरी मा वंध्या है,' इत्यादि बातें बिलकुल असंगत और विरोधवाली हैं, उसी प्रकार आत्माको निषेध करनेवाली दलीलें भी वैसी ही असंगत और विरोधी हैं। इस विषयमें किसी एक ज्ञानीपुरुघने कहा है:
. आत्माकी शंका करे, आत्मा ही खुद आप ।
शंका कर्ता है वही, अचरज यही अमाप । तथा आत्माको सिद्ध करनेवाले अनुमान भी अनेक हो सकते हैं और वे इस प्रकार हैं
१ जैसे कि चलते हुये रथका कोई न कोई हांकनेवाला होना चाहिये वैसे ही इच्छानुसार चलते हुये (क्रिया करनेवाले) शरीरका भी कोई हांकनेवाला होना चाहिये और जो शरीरका हांकनेवाला या उसे चलानेवाला छहरे वही आत्मा है।
२ जैसे चढ़ई वगैरह कर्ताकी प्रेरणा होनेपर ही विसोला वगैरह साधन काम कर सकते हैं वैसे ही आंख और कान वगैरह साधन भी किसी कर्ताकी प्रेरणा होनेपर ही काम कर सकते। हैं और जो उन साधनोंका प्रेरक कर्त्ता निश्चित हो वही प्रात्मा है।
३ जिस तरह घटके अस्तित्वका प्रारम्भ मालूम होता है और उसका अमुक आकार मालूम होता है अत: उसका कोई कर्ता होना चाहिये, वैसे ही शरीरके अस्तित्वका प्रारम्भ मालूम होता
है और अभुक आकार भी मालूम होता है अतः उसका भी कोई . का होना चाहिये, एवं जो उसका कर्ता निश्चित हो वही 'प्रात्मा