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जैन दर्शन
कलम और जगतके बीच सर्व प्रकारको समानता होनी चाहिये, परन्तु इतना तो हम कह सकते हैं और कहेंगेभी कि उन दोनों में कर्तृभाव-बनावटपन तो समान ही होना चाहिये । यदि ऐसा न हो तो बनावटका सहारा लेकर जगतके वनावटपनको सिद्ध करके और उसके द्वारा उसके बनानेवाले कर्त्ताकी सिद्धि करनेका प्रयत्न करना यह सर्वथा निर्मूल और व्यर्थ है । सूक्ष्म विचार करनेसे स्पष्ट मालूम होता है कि कलम और जगतके वीच जो कृत्रिम भाव है उसमें भी यथार्थतया समानता नहीं है । क्यों कि कलम या अन्य की जा सकनेवाली वस्तुओका कर्ता-उनको बनानेवाला कोई न कोई प्रत्यक्ष देख पड़ता है । आप समस्त संसारमें घूम कर देखें या अनुभव करें कि ऐसी एक भी कोई वनावटात्मक वस्तु मिल सकती है कि जिसके वनानेवालेको किसीने भी न देखा हो। इससे तो कृत्रिमभावके लिये सिर्फ देखने में आ सके इसी प्रकारके काकी अटकल या कल्पना की जा सकती है। परन्तु आपके कथन सुजव वह अवश्य किस तरह कल्पित किया जाय? हां हो सकता है, यदि आप एक भी ऐसी चीज वतनावे कि जिसका को किसीसे भी न देखा जाय । हमारी समझ मुजब ऊपर कथन की हुई रीत्यनुसार जगत और कलम इन दोनोकी समानता ही इस विषयमें सुघटित नहीं है तो उसके द्वारा जगतके रचयिताकी सिद्धिकी वाते करना यह रेतकी दीवाल खड़ी करनेके समान है। दूसरी एक यह भी बात है कि जगतमें जितनी वस्तुये देख पड़ती हैं वे सबही किसीकी बनाई हुई हो यह कोई नियम नहीं हो सकता। कितनी एक वस्तुयें ऐसी हैं कि जो किसीकी बनाई हुई होती हैं और कितनी एक वस्तुये विना किसीके बनाये ही होती हैं । यह आप भी प्रत्यक्ष देखते हैं कि संसारमें कितनी एक चीजें ऐसी हैं कि जिन्हें किसी कर्ता-बनानेवाले-घड़नेवाले या चुननेवाले ने की हो, बनाई हो, घड़ी हो और बुनी हो। जैसे कि चाक, लेखनी, घड़ा और कपड़ा वगैरह । इसी प्रकार ऐसी वस्तु:भी बहुत हैं कि जिन्हें किसीने भी न बनाई हो । जैसे कि पर्वत, समुद्र, वृक्ष, घास और लतायें तथा विना ही वोये पैदा होनेवाली वनस्पति