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सर्वज्ञवाद
अनादिकालसे मलिन होता है तथापि अग्निके पातापसे वह शीघ्र ही विशुद्ध हो जाता है उसी प्रकार 'मलिन आत्मा भी धीरे धीरे शान, ध्यान, तप वगैरहका अभ्यास करते करते परम निर्मलताको प्राप्त होकर सर्वज्ञ हो सकती है, अतः इस प्रकारकी सादी-सुगम वातको सावित करनेके लिये अन्य प्रमाणोंका आश्रय लेनेकी अपेक्षा अपना अनुभव ही काफी है। यह बात तो आप भी जानते ही हैं कि-" नित पढ़ते पंडित बने लिखते लेखक होय, एक एक पद चलत ही मंजिल कमती होय" __ जैमिनि-महाशयजी! आपका यह धीरे धीरे सर्वज्ञ वननेका सिद्धान्त भी हमे असत्य ही मालूम देता है। क्योंकि जो मनुष्य सदैव कूदनेका अभ्यास करता है यद्यपि वह दूसरोंकी अपेक्षा कुछ अधिक कूद सकता है तथापि वह कभी सौ योजन तो कूद ही नहीं सकता। अर्थात् अभ्यासके द्वारा भी मात्र मूल 'स्थितिमें ही कुछ सुधार हो सकता है उससे उपरान्त कुछ नहीं हो सकता तो फिर इससे सर्वज्ञ होनेकी बात किस तरह हो सकती है ? कदाचित् कुछ देरके लिये आपको संतोषित करनेको आपके कथनानुसार हम किसीको सर्वज्ञ मान भी लें तथापि वह सर्वज्ञ समस्त संसारको किस तरह जान सकता है? क्या वह इस अखिल संसारको अपनी आँखोसे देख सकता है ? या अन्य किसी चमत्कारी शानके द्वारा जान सकता है ?
वहतसे पदार्थ दूर और छिपे हुये रहनेके कारण मात्र आँखों द्वारा ही जगतको नहीं देखा जा सकता एवं उसमें किसी प्रकारका चमत्कारी शान है या नहीं इस बातका निर्णय हुये विना यह किस तरह कहा जा सकता है कि वह चमत्कारी ज्ञानके द्वारा पाखिल विश्वको जानता है ?
यदि आप यों कहें कि वह सर्वज्ञ कितना एक तो आंखे वगैरह इंद्रियों द्वारा, कितना एक अटकल-अनुमान द्वारा और कितना एक शास्त्रों द्वारा इस प्रकार सारे जगतको जानता है, तो फिर जगतके सव ही मनुष्य जगतको इसी प्रकार जाननेवाले होनेके कारण उन सबको सर्वज्ञ ही क्यों न कहा जाय? दूसरी बात