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जैन दर्शन
जैन आप जिस शास्त्रकी वात करते हैं वह शास्त्र किसीका बनाया हुआ है याने पौरुषेय है ? किंवा ऐसे ही बना हुआ याने ' अपौरुषेय है?
जैमिनि-शान तो ऐसे ही सिद्ध है, अर्थात् किसीका बनाया हुआ नहीं-अपौरुषेय है।
जैन-महाशयजी! यह तो एक नवीन ही वात सुनते हैं ? भला कहीं शास्त्र भी विना बनाये ऐसे ही सिद्ध हो सकते हैं ? और ऐसे शास्त्रको सत्य भी कौन सान सकता है ? जिस शास्त्रके रचनेवाला प्रमाणिक पुरुप होता है वही शास्त्र सत्य साना जाता है, परन्तु जिसके बनानेवालेका ही पता नहीं वह कदापि सत्य नहीं माना जा सकता । इसलिये आप विना ही बनाये यों ही स्वयं बने हुये शास्त्रकी गप्प जाने दीजिये । कदाचित आप वेदोंको स्वयं ही बने हुये मानते हो तो उनमें हिरण्यगर्भः सर्वज्ञः ऐसा साफ उल्लेख मिलता है और इससे साफ साफ सर्वज्ञकी सिद्धि हो जाती है। तथा वेद मान विधि विधान ही कथन करते हैं, इससे विधि विधानों द्वारा सर्वशका निषेध हो नहीं सकता । इस लिये.. कोई भी शास्त्र ऐसा नहीं है कि जो सर्वज्ञकी सिद्धिमें बाधा पहुँचा। सकता हो।
जैमिनि-अस्तु अनुमान प्रमाण और शास्त्र प्रमाण जाने दो परन्तु हम उपमान प्रमाण द्वारा सर्वज्ञकी सिद्धि रोक सकते हैं .
जैन-महाशयजी! उपमान प्रमाण तो प्रत्यक्ष प्रमाण जैसा ही है। अर्थात् उसमें एक दूसरेकी समानता प्रत्यक्ष दिखलाने द्वारा ही वस्तुका यथार्थ ज्ञान कराया जाता है । कदाचित् आप यह कह नेका साहस करें कि संसारके समस्त मनुष्यों के समान ईश्वर भी असर्वज्ञ है, ऐसा कथन करनेसे हमारा बतलाया हुआ वही पूर्वोक्त दूपण लागु पड़ता है कि ऐसा कहनेवाला स्वयं ही सर्वज्ञ सावित . होता है। क्यों कि संसारके समस्त मनुष्योंको विना सर्वज्ञके अन्य कोई जान नहीं सकता। इस प्रकार उपमान प्रमाण द्वारा भी सर्वज्ञकी सिद्धिमें कुछ त्रुटि नहीं सकती। ऐसा एक भी भाव (वस्तु या क्रिया) नहीं है कि जो सर्वज्ञके न होने पर ही