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सर्वज्ञवाद
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जैमिनि - सर्वज्ञ प्रामाणिक वस्तु स्वरूपका कथन करता है इस लिये वह असर्वज्ञ है ।
जैन - महाशयजी ! इसमें भी आपकी भूल मालूम होती है । प्रामाणिकतया प्रामाणिक वस्तुस्वरूप कथन करना यह तो सर्वज्ञका धम ही है, सर्वज्ञका कर्तव्य ही है और यही तो सर्वज्ञका मुख्य चिन्ह है । इस लिये प्रामाणिक वस्तुस्वरूपका कथन करने से कोई भी सर्वज्ञ असर्वज्ञ सावित नहीं हो सकता परन्तु इससे विपरीत असर्वज्ञ सर्वज्ञ हो सकता है, यह बात तो स्पष्ट ही है | अतः आप इस प्रकार इधर उधर हाथ पैर पछाड़ने से सर्वज्ञका निषेध कदापि नहीं कर सकते ।
जैमिनि -- ठीक है, चलो हम ऐसा मानते हैं कि सर्वज्ञ बोलता है इसी लिये वह सर्वश है ।
जैन - महाशयजी ! आप जरा विचार करके वोलते जाँय तो ठीक रहे, वोलनेकी क्रियाके साथ जब सर्वज्ञताका किसी प्रकार विरोध ही नहीं है तब फिर आप यह कह ही कैसे सकते हैं कि बोलनेवाला पुरूप सर्वश नहीं हो सकता । इसी प्रकार बुद्ध वगैरह सर्वज्ञ नहीं, सब पुरुष सर्वज्ञ नहीं हैं इस तरहके आपके तमाम अनुमानोंको दूपावाले ही समझ लेना चाहिये । देखिये कि यदि आप ऐसा फरमायें कि बुद्धदेव सर्वज्ञ नहीं है तो इसीसे अर्थात् ऐसा कथन करनेसे ही स्पष्टतया यह अर्थ मालूम हो जाता है कि अन्य कोई सर्वज्ञ अवश्य होना चाहिये और इस तरह सर्वज्ञके निपेधके लिये लगाई हुई आपकी ही युक्तिसे सर्वज्ञ सावित हो जाता है । आप जब यह कथन करते हैं कि पुरुष मात्र सर्वज्ञ नहीं तब तो स्वयं श्राप ही सर्वज्ञ सिद्ध हो जाते हैं, क्यों कि अनुमान करते समय आप समस्त संसारके पुरुषोंके विषयमें ऐसा कथन करते हैं । इस प्रकार आपका एक भी अनुमान सर्वज्ञकी सिद्धिमें जरा भी हरकत नहीं पहुँचा सकता ।
जैमिनि -- परन्तु शास्त्रमें ऐसा कहाँ लिखा है कि कोई सर्वज्ञ हो सकता है ? अर्थात् शास्त्रमें सर्वज्ञके साथ सम्बन्ध रखनेवाला उल्लेख न मिलने से ही हम ऐसे अशास्त्रीय सर्वेशको नहीं मानते ।
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