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जैन दर्शन
जगतकी रचना करता है और इस कारण वह किसी प्रकारकी नहीं वनने योग्य रचना कर ही नहीं सकता। __ अकर्तृवादी-बस फिर तो हो चुका मामला खतम, यदि ईश्वर भी कौके वश रहता है तो फिर वह ईश्वर ही काहंका? वह सर्व शक्तिमान् हो ही नहीं सकता, क्यों कि वह भी साधारण मनुष्योंके समान ही कर्मके वशीभूत है।।
कर्तृवादी-जरा ठहरिये इसमें हमारी भूल होगई है, वह सर्व- । शक्तिमान् तो जरूर है.और कर्मवश होकर नहीं किन्तु मात्र दया के कारण ही वह ईश्वर परमात्मा जगतकी रचना करता है, क्यों कि वह परम दयालु है।
अकर्तृवादी-यदि वह ईश्वर दयाके कारण ही जगतको रचना करता है तो फिर समस्त संसारको सुखी ही चल्यों नहीं वनावे? क्यों कि जगतके तमाम प्राणी सुखार्थी हैं, दुःख सभी को अप्रिय है। प्राणीमात्रको सुख देना यह दयालु पुरुपका प्रथम कर्तव्य है । परन्तु जगतमें हम प्रत्यक्ष देखते हैं कि सुखकी भावना या सुख एक सरसोंके दानेके समान है और दुःख सुमेरु पर्वतके समान देख पड़ता है । इस कारण ऐसे दुखी जगतको देख कर कोई भी बुद्धिसान मनुष्य यह कल्पना नहीं कर सकता कि ईश्वर मात्र दयाभावसे प्रेरित होकर ही जगतकी रचना करता है।
कर्तृवादी-ईश्वर तो परम दयालु होनेके कारण सब जीवों को सुखी ही बनाता है परन्तु जवि अपने कृतकोंके लिये दुखी वन जाते हैं, इसमें भला ईश्वरका क्या दोष है ? __ अकर्तृवादी-बस हो चुका, तव तो श्रापके कहे मुजव ही ईश्वरसे भी बढ़कर काकी शक्ति-बल अधिक सिद्ध होता है। इस लिये सहाशयजी! यदि आप जगत रचनाकी उलझनमें ईश्वरको न डालकर उसके स्थान पर काँको ही मानले तो क्या हरकत आती है ?
कर्तृवादी-यदि पूर्वोक्त मान्यतासे ईश्वरकर्तृत्वसिद्धान्त उड़ जाता हो तो हस वैसा मन्तव्य माने ही क्यों? चलो हम ऐसा