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ईश्वरवाद
मान्यताके अनुसार भी ईश्वरमें इच्छा और प्रयत्न के सिवाय
और कुछ तीसरी वस्तु हो ऐसा मालूम नहीं होता और इसके द्वारा जगतकी रचना करनेमें कहाँ कहाँ पर दूषण उपस्थित होते हैं सो आपको प्रथम ही मालूम हो चुका है । इस लिये आपकी यह निर्मूल मान्यता किसी प्रकार भी सिद्ध नहीं हो सकती। अर्थात्
आपकी ओरसे अभीतक ऐसी एक भी दलील नहीं दी गई कि जिसके द्वारा जगतके रचयिताको सावित किया जासके।
हम आपसे यह पूछते हैं कि आपका माना हुआ ईश्वर जगत रचनाकी जो खटपट कर रहा है क्या उसमें वह अपनी मरजीके मुताविक प्रवृत्ति करता है ? या कर्मोके वश होकर प्रवृत्ति करता है ? वा दयाके लिये प्रवृत्ति करता है ? अथवा लीला करनेकी वृत्तिले प्रवृत्ति कर रहा है ? किंवा भक्तजनोंको तारने और दुष्टजनोंको मारनेके लिये जगत रचनामें प्रवर्तता है या इस प्रकारकी प्रवृत्ति करनेका उसका स्वभाव ही है ?
कर्तृवादी-भाई ! वह ईश्वर सर्वोपरी होनेसे जगतकी रचना उसकी इच्छानुसार ही करता है, और जगतकी रचना या उसका प्रवाह ईश्वरकी इच्छापर ही आधार रखता है। _ अकर्तृवादी-महाशयजी! आपकी युक्ति हमारी समझमें नहीं बैठती, क्यों कि यदि ईश्वर जगतकी रचना करने में उसीकी इच्छानुसार वर्तता हो तो फिर कोई ऐसा भी समय आना चाहिये कि जिस समय जगतकी रचना किसी जुदे प्रकारकी भी हुई हो ।
आप यह कल्पना तो कर ही नहीं सकते कि ईश्वरकी इच्छा सदा काल एकसी ही रहती है, क्यों कि वह सर्वथा स्वतंत्र होनेसे चाहे वैसी इच्छा कर सकता है। परन्तु जगत तो सर्वदा एक ही स्वरूपमें चलता देख पड़ता है, इससे भिन्न स्वरूपमें कभी किसीने देखा हो या सुना हो यह मालम ही नहीं होता, इससे यह स्पष्ट ही सिद्ध होता है कि जगतकी रचना करनेमें ईश्वर अपनी ही इच्छानुसार प्रवृत्ति नहीं कर सकता।
कर्तृवादी-नहीं ऐसा नहीं, किन्तु कर्मके वश होकर ईश्वर