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जैन दर्शन
'करेंगे तो आपको सामान्यको अनित्य मानना पड़ेगा। इस प्रकार रचना या वनावट का आपका ही कथन किया हुआ अर्थ आपके 'ही घरमें उत्पात करता है ।
कर्तृवादी - यदि आपको हमारे कथन किये हुए पूर्वोक्त रचना के अर्थमें कुछ वाधा मालूम पड़ती हो तो हम उस अर्थको किनारेरख कर यह उसका दूसरा स्वरूप मानते हैं कि जिस रचनाकी नीवका प्रारम्भ जुढे जुदे विभागोंसे ही होता हो उसे ही रचना या बनावट समझना चाहिये ।
अकर्तृवादी - महाशयजी ! श्राप तो ऐसी विचित्र वांत करते हैं कि जो कभी किसीने न देखी हो, न सुनी हो और न ही युक्तिसे सिद्ध हुई हो या हो सकती हो। भला संसारमें ऐसी कौनसी रचना है कि जिसकी नीव उसके जुदे जुदे अवयवों द्वारा चिनी जाती हो? आप कृपया किसी कुंभारके घर जाकर देखें या दरिया• फ्त करें कि वह जिस घड़ेकी रचना करता है उसका प्रारम्भ उस घड़े के जुदे जुदे अवयवोंसे करता है या एकदम ही चाक पर मिट्टी का पिण्ड़ रख देता है । हमने तो कहीं भी आज तक यह नहीं देखा कि घटके जुदे जुदे ठींकरोंसे घट वन सकता हो । अतः आपका निश्चित किया हुआ रचनाका यह दूसरा लक्षण भी निं-मूल होनेके कारण मान्य नहीं हो सकता ।
कर्तृवादी - अस्तु यदि आपको हमारा दूसरा लक्षण भी निर्मूल मालूम देता है तो तीसरा लीजिये । जो रचना अखण्ढ़ होने पर भी भिन्न भिन्न विभागवाली मालूम पड़ती हो लो हम उसीको रचना मानते हैं । श्रव आप फरमाये यदि इसमें भी कुछ त्रुटि हो तो ।
कर्तृवादी - महाशयजी ! इस आपके कथन किये हुये रचनाके तीसरे लक्षणमें छोटी त्रुटि नहीं किन्तु वड़ा भारी दोप है | देखिये "कि यह आकाश सर्वत्र रहा हुआ है, यह बात तो आप भी मानतें हैं और इसे नित्य भी आप मानते हैं अर्थात् श्राकाशको श्राप भी किसीका रचा हुआ नहीं मानते । अव यदि आप रचनाके इस तीसरे लक्षणको मानेंगे तो आकाशमें भी इसका व्याप्ति दोष लागू