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१६ . जैन दर्शन सभी लक्षण दूषित सही, किन्तु जिस वस्तुमें परिवर्तन होता . रहता है हम उसे ही रचना मानते हैं और रचनाका लक्षण भी हम यही कायम करते हैं । जमीन वगैरह वस्तुओंमें नित्य होता हुआ परिवर्तन-फेरफार हरएक मनुष्य देख सकता है, अतः उसे रचना माननेमें किसी भी प्रकारकी वाधा नहीं सकती और इसीसे उसके रचयिताकी सिद्धि भी सिद्ध हो सकती है।
अकवादी-महानुभाव ! आप तो नित्य नये लक्षण ही बदलते रहते हैं, एक भी लक्षण पर श्राप ठहर नहीं सकते । जय श्राप लक्षण भी निर्दोष नहीं बाँध सकते तो फिर लक्ष्यकी सिद्धिकी तो बात ही क्या? अब देखिये श्रापका यह लक्षण भीअशुद्ध ही है। आप परिवर्तनको ही रचनाका मुख्य चिन्ह मानते हैं। परन्तु यदि ईश्वरकी वृत्ति या स्वभावमें किसी प्रकारका परिवर्तन न होता हो तो फिर वह एक ही स्वरूपमे रहा हुया ईश्वर रचना, पालना और विनाशके कार्यको किस प्रकार कर सकता है?
और किस तरह उन सव कार्यों में पहुँच सकता है? । रचना किये वाद जब वह पालन करनेकी वृत्ति धारण करे तबही पालन कर सकता है और पालन किये वाद अब मारनेकी वृत्ति करे तव ही वह विनाश कर सकता है । इस प्रकार वृत्तिम परिवर्तन हुये विना एक ही वृत्ति किंवा एक ही वृत्तिवाला कोई भी एक व्यक्ति जुदे जुदे और एक दूसरेके साथ सर्वथा समानता न रखनेवाले भिन्न भिन्न कार्योंको करने में कदापि समर्थ नहीं हो सकता । अव जबकि आप रचना करनेवाले, पालन करनेवाले और संहार करनेवाले एक ईश्वरको ही मानते हैं तो फिर आपको भी ईश्वरके स्वभावमें परिवर्तन कबूल करना पड़ेगा । इस प्रकार माननेसे पूर्वोक परिवर्तनशील ईश्वर में भी यह नूतन रचनाका नियम चरितार्थ होगा और इससे उस परिवर्तनशील वृत्तिवालेको बनाने वाला भी कोई दूसरा ही शोधना पड़ेगा । इस तरह एक भी किसी कर्ता रचयिताकी सिद्धि न हो सकेगी । अतः इससे परिवर्तनके नियम द्वारा कृत्रिमताके स्वरूपको निश्चित करके कर्ताका सिद्धि साधन ही नहीं हो सकता तो फिर उसके द्वारा कर्त्ताकी सिद्धिकी तो बात ही कहाँ रही।