Book Title: Jain Bal Bodhak 04
Author(s): Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
Publisher: Bharatiya Jain Siddhant Prakashini Sanstha
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जनबाजवोधक
तब विलंब नहिं कियौ, चीर द्रोपदिको बाढ्यो । तव विलंब नहि कियो, सेठ सिंहासन चाढ्यो । तब बिलंब नहिं कियो, सियातें पावक टारयो । तब विलंब नहिं किया, नीर मातंग उदारयौ ।
इह विध अनेक दुख भगतके, कर दूर किय सुख श्रवनि । प्रभु मोहि दुःख नासन विषै, अथ विलंब कारन कवनि ॥ ५ ॥ कियो भौनतें गौन, मिटी प्रारति संसारी । राह आनि देखे श्रीजिनराज, पाप मिथ्यात विलायो । पूजा श्रुति बहु भगति, करत सम्यक गुन प्रायौ ॥
तुम ध्यान, फिकिर भाजी दुःखकारी ॥
इस मारवाड़ संसारमैं, कल्पवृक्ष तुम दरस है । प्रभु मोह देहु भवभव विषै, यह वांछा मन सरस है ॥ ६
जय जय श्री जिनदेव, सेव तुमही श्रघ नाशक । जय जय श्री जिनदेव, भेव पट द्रव्य प्रकाशक ॥ जय जय श्री जिनराज, एक जो प्राणी घ्यावे जय जय श्री जिनदेव, देव प्रहमेव मिटावै ॥
जय जय श्री जिनदेव प्रभु, हेय कर्म रिपु दलनकौं । हुजे सहाय संघरायजी, हम तयार शिव चलनको ॥ ७ ॥ जय जिनंद श्रानंदकंद, सुरवृन्द वंद पद ।
ज्ञानवान सब जान, सुगुन मनि खान ध्यान पद ॥ दीन दयाल कृपाल, भविक भौजाल निकालक । श्राप बूक सब सूम, गुझ नहिं बहु जन पालक ॥