Book Title: Jagadguru Heersurishwarji
Author(s): Punyavijay
Publisher: Labdhi Bhuvan Jain Sahitya Sadan

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Page 18
________________ आपकी पवित्र भावना को वैराग्य रूप नीरसे नव पल्लवित बना दी। और 'शुभस्य शीघ्रम्' व कहावत को सार्थक करने की प्रवल प्रेरणा भी दी। ___ होरजीने गृह पर आकर बडी बहिन को विनम्र होकर अपनी संसार त्याग की भिष्म प्रतिज्ञा जाहिर की। वह इलेक्ट्रीक करण्ट जैसे वचन को सुनकर बहिन मोहवश चैतन्यशुन्य हो गई। मगर आकठ वीर-वाणी का अमीपान किये थे। इसलिये हीरजी को महाभिनिष्क्रमण की न अनुमति दी, एवं संसार में ठहरनेका भी न कहा। और तीसरा राह मौनका आलम्बन लिया। होरजी बडे चतुर थे। वे समज गये। 'न निषिद्धं अनुमतं' व न्याय से उसने आचार्यश्री के पास आकर प्रव्रज्याका मुहूर्त निकाला। और वि. सं. १५९६ का. सु. २ सोमवार के शुभ दिन तेरह सालको उम्रमें हीरजी बड़ी धूमधामसे पुनित प्रव्रज्या के पथिक बने। तब से कुमार होरजी मुनि हीर हर्ष बने। स्वार्थी संसार का अंचला त्यागकर मुक्तिपथके विहारीसच्चे साधु बने। पू आचार्य देवने नतन मुनि पर अनुग्रह करके ग्रहण और आसेवन रूप शिक्षा का अनुदान दिया। नूतन मुनिश्री नित नूतन अभ्यास और गुरु विनय-सेवा दोनों को अपना जीवन मुद्रालेख बनाकर संयमपर्याय में दिन व दिन प्रगति करने लगे। गुरु महाराजने होरहर्षकी विनम्रता सह शास्त्राध्ययन में भारी प्रज्ञा देखकर उनको न्याय-तर्क आदि गहन शास्त्रों को पढने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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