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एक बार सब सरदार-उमराव इकठ्ठे होकर, मेरे को कहने लगे, बापका सच्चा बच्चा वो है, जो अपने परंपरा से आये हुये मार्ग को छोडता नहीं उन्होंने एक उदाहरण दिया। व सुनकर उसका विरुद्ध दृष्टांत मैंने भी दिया। किन्तु वो सब रसनेन्द्रियके लालचू थे। इसलिये छोड नहीं सकते।
महाराज ! दूसरों की बात जाने दो। मैंने भी खुद ऐसे ऐसे पाप किये है। ऐसा किसीने नहीं किया होगा। जब मैंने चित्तोडगढ जीत लिया उस समय राणा के मनुष्य-हाथी-घोडे मारे थे। इतना ही नहीं चित्तोड के एक कुत्तेको भी नहीं छोडा था। ऐसे पापसे मैंने बहुत से किल्ले जीते है। सूरिवर ! मुझ को शिकार का भी बहुत शाँख था। मेडता के रास्ते पर २२४ हजोरों पर पांचशे-पांचशें हिरण के सींग टींगाये है। अरे, हर धरमें एक हरणका चमडा-दो सींग और एक महोर बाँटी थी। गुरुजी ! आपको क्या मेरी करुण कहानी सुनाऊं, मैं रोजाना पांचशौ-पांचशौ चिडिया की जीभ बड़े स्वादसे खाता था । जबसे आपका दर्शन हुआ और उपदेश-वाणीका पालन किया है तब से वह पाप छोड दिया। इतना ही नहीं शुद्ध अंतःकरण से मैंने छःमहिने तक मांसाहार नहीं करनेकी प्रतिज्ञा भी की है। अब तो ऐसी मांस से नफरत हो गई है कि हमेशा के लिये मांसाहार छोड दूं।
सूरि भगवंत बादशाह की सरलता एवं सत्यप्रियता देखकर राजीके रेड बन गये और उनके पर बार-बार धन्यवाद का बारीश बर्षाया।
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