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दीक्षाको कतार और शिष्य संपदा :
समय-समय का कार्य कर रहा है। कोई समय दर्शन के उदय का आता है तो कोई समय ज्ञान का आता है ।
ऐसे हीरसूरिजी का समय चारित्रका था। उनके चारित्र के प्रबल प्रतापसे चारों ओर दीक्षाकी बंशी बज रही थी।
भलभला गर्भश्रीमंत-विद्वान-कमल जैसे सुकुमालांगी सारे कुटम्ब के कुटुम्ब पारमेश्वरी प्रव्रज्या के पथिक बनकर मुक्ति-मार्ग पर चल जाते थे।
सूरिजी की ऐसी प्रभावक देशना-शक्ति थी। पर गच्छ के साधु सत्यमार्ग में आ जाते थे।
वि. सं. १६२८ साल की बात है। लोंकामतकें अग्रेसर मेधजी ऋषि ने मूर्तिपूजा की सत्य श्रद्धा हो जाने से त्रीश मुनिवर के साथ सूरिजी के पास आकर संविग्न संयम की स्वीकृति की। और उनके कई गृहस्थ अनुयायी सूरिजी के भक्त हो गये थे।
वि. सं. १६३१ में खंभात में सूरिजीने ग्यारह मनुष्यकों दीक्षा के यात्री बनाये थे।
पाटण के निवासी अभयराज नामके गर्भश्रीमंत गृहस्थ दीवमें व्यापार कर रहे थे, उसकी लडकी गंगाकुमारी के दीक्षा निमित्त से पिता-पुत्र-पत्नी-पुत्री- भाई की पत्नी और चार अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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