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શ્રી યશોવિજયજી ૬ જૈન ગ્રંથમાળા
દાદાસાહેબ, ભાવનગર,
Behere-7080018
300४८४
गुरु श्री हीरसूरये। वीं शताब्दीके
हीरसूरीश्वरजी
लेखक: पूज्यपाद आचार्यदेव श्री विजयभद्रंकरसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न
मुनि पुण्यविजय
: सहायक : मद्रास के गुरुभक्त सुश्रावकों के
तरफसे सादर भेट वी. सं. २४९७] हीर सं. ३७५ [वि. सं. २०२७
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श्री विजय भुवनतिलकसूरीश्वर जैन ग्रंथमाला-३१ लब्धि-भुवनतिलक-भद्रंकरसूरि गुरुभ्यो नम :
+ सोलवीं शताब्दीके क
जगद्गुरु हीरसूरीश्वरजी
- : लेखक :
पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद् विजयभद्रंकरसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न मुनि पुण्यविजय
V. VORA
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N.
V.
: सहायक/- L. I. C. Agents. मद्रास के गुरुमन सुश्रावकोंके.1
(Near Select Talkies) तरफसे सोदर HRAMANIA HION
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प्रकाशक:
श्री लन्धि भुवन जैन साहित्य सदन c/o नटवरलाल चुनिलाल
छाणी (गुजरात) जि. बडोदा
प्रथम संस्करण :
भेट आत्म सं. ७५ लब्धि. सं. १०
प्राप्तिस्थान :
(१) श्रीमान पांचोलालजी कोचर ४२६, मिन्ट स्ट्रीट
मद्रास-१
मुद्रक:
गिरिधर आर्ट प्रिन्टर्स १७/१९, बबरियन स्ट्रीट मद्रास-१. फोन : २२७५४
जैन मोशन लायब्ररी ४०८ मिन्ट स्ट्रीट
मद्रास-1
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: प्रकाशकीय :
आपके आगे एक ऐसे महापुरुष के जीवन चरित्र का ग्रंथ प्रकाशित कर रहे है कि, आप एक बार उसको पढोंगे तो आपके जीवनमें कुछ न कुछ परिवर्तन जरूर आयेगा।
'सोलवीं शताब्दी के जगदगुरु हीरसूरीश्वरजी' मामक ग्रंथ पूज्यपाद आचार्यदेव श्रीमद्विजय भद्रंकरसूरीश्वरजी महाराज के शिष्यरत्न पू. मुनिवर्य श्री पुण्यविजयजी महाराजनें लिखा है।
उक्त मुनिश्री हमारी संस्था किस तरह से सर्वजनबोधकअभिनव प्रकाशनें शीघ्र प्रकाशित करके ज्ञानभक्ति की अपूर्व सेवा बनावें' उनके कार्य में सदैव मग्न रहते है। अतः उन मुनिश्री का हम अत्यंत ऋणी है ।
हमारे संस्था के हिन्दी प्रकाशनों की प्रेसकॉपी करनेमें नवयुवक सुंदरलाल-मांगीलाल एवं कान्तिलाल और जैनमिशन सोसायटी ने अच्छा सहयोग दिया है। उन सबके हम आभारी है।
ग्रंथ प्रकाशन में आर्थिक सहयोग देनेवाले महानुभावों को भी हार्दिक धन्यवाद देता हूँ। और प्रार्थना करता हूँ कि, आगे भी ऐसे प्रभावक महापुरुषों का जीवनचरित्र प्रकाशित करके आबालवृद्ध को गुरुगुणानुवाद को लाभ देवें।।
जिससे अपना किमती जीवन कैसे सफल बनें वे विदित होवे।
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: लेखक का वक्तव्य :
इस साल पू. गुरुदेव मद्रास चतुर्मास बोराजीत है। तब भा. सु. ११ के दिन मुगलसम्राट अकबर प्रतिबोधक स्व. पूज्यपाद आचार्यदेवश्री हीरसूरीश्वरजी महाराज की ३७५वीं पुण्यतिथि पूज्यश्री के निश्रामें ठाठ से मनाई गई थी।
स्व. महापुरुषके निरतिचार चारित्रपालन, अजोड प्रभावक प्रवचन शक्ति, शासन सेवा-प्रभावना को भारी तमन्ना, निःस्पृहता, तपोनिधि आदि कई गुण-मौक्तिकों की श्रेणीको सुनकर संघ अत्यंत हर्षान्वित होकर कहने लगा, पू. होरसूरिजी महाराजका जीवन इतना प्रभावक है। तो छोटे-छोटे बच्चे आदि उन महात्मा की जीवनी पढकर अपने 'जीवन-उपवनको गुणपुष्पोंसे' नंदनवन सम बनावें तो कितना अच्छा लाभ मिले? आपश्री कृपाकर उनके बारेमें छोटीसी पुस्तिका प्रकाशित करें।
पू. गुरुदेवनें भावीकों की विनंति को मानकर, मेरे पर अनुग्रह करके वह कार्य करने को कहा, तब मैंने 'सूरीश्वर और सम्राट' ग्रंथ सामने रखकर अल्पमति अनुसार वह ग्रंथ लिखकर विद्वद्जन समक्ष एक मूर्ख मनुष्य बालीश चेष्टा करें ऐसी क्रिया की है, सो मेरे इस कार्यको सुज्ञजन खीरनीर न्याय से सार ग्रहण करें। और दोषका मुजे ब्यान करावे ऐसी नम्र प्रार्थना कर मेरी कलम को आराम देता है।
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मोगल सम्राट अकबर बादशाह प्रतिबोधकर
मारवाड
स्वर्गवास मे. भवान
UTCUT उगुंगरा
श्री जैन शासन सम्राट श्री हीरसूरीश्वरजी महाराज साहेब
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श्री हीरसूरीश्वरस्तुत्यष्टकम्
श्रीमद् विजय भुवनतिलकसूरीश्वर पट्टधरभद्रंकरसूरि
रचितम्
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युगप्रधानःस्वपरागमज्ञः, कुशाग्रमेधाजितदेवसूरिः ।
जगद्गुरुर्जङ्गमकल्पशाखी, तन्याच्छ्विं वो मुनिहोरसूरिः ||१||
यशः शशीवाखिल दिक प्रगामि, कलङ्कराहित्ययुतं तु चित्रम् ।
·
सच्चक्रवाढ प्रमदेकहेतुः श्रीहीरसूरिर्मनुजान् पुनातु ॥२॥
मध्येसभं भाति यदीयवाणी, पानीयवत्कर्ममलं हत्ती ।
औदात्त्यगाम्भीर्यमयी
सुचार्वी, माधुर्यधुर्या शुचितां वहन्ती ||३||
समागतान्वादिगजान् सुसज्जान्, वादस्थले सिहइवातिगर्जन् ।
श्रीहीर सूरिजिनशासनस्य, पुष्फोर जित्वा विजयध्वजं यः || ४ ||
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तपः प्रभावः प्रथितोऽतिशायी, प्रबोधयन् श्रीमद कब्बरादीन् ।
नृपाननेकान् यवनेषु मुख्यान् व्यापत्रिलोक्यां गुरुही रसूरेः ||५||
श्री शान्तिचन्द्रप्रमुखैः स्वशिष्यैः, विद्याश्वतस्रः समुपेयिवद्भः । वज्रीव देवः समुपास्यमानः, श्रीहीरसूरिदिशतात्सुखं नः ||६||
स्याद्वाद सिद्धान्तमाध्यमेनं, प्रमाणयन् युक्तिछटा प्रयुक्तम् । समन्वयन् भिन्नमतं स्वदृष्टया, श्रीहोरसूरिजंयतात् सुखेन ॥७॥
चारित्रिमुख्याय विचक्षणाय, जिनेशसिद्धान्तनिस्नपकाय । लोकोपकारकरताय तुभ्यं, श्रीहीर सूरिप्रभवे नमः स्तात् ||८||
श्री लब्धिसूरौ कमलाकराभे, सत्पद्मरूपो भुवनाख्यशिष्यः । जातो हि तस्य भ्रमरोपमेण, भद्रङ्करेणाष्टकमाशु दुब्धम् ॥९॥
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पू. आ. विजयानन्दसूरि म पू. आ. विजयकमलसूरि :
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आ. विजय भुवनतिलकसूरि
आ. विजय लब्धिसूरि , आ. विजय भद्रंकरसूरि
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मद्रास शहर में हुई शासन प्रभावना की झांकी . इस चातुर्मास में पूज्य पाद आचार्य देव श्री विजय भुवनतिलक सूरीश्वरजी महाराज को आज्ञा से उनके प्रभावक पट्टधर पूज्यपाद आचार्य विजय भद्रंकर सूरीश्वरजी म.सा. अपने शिष्य परिवार मुनि अरुणप्रभ वि., मुनि पुण्य वि., मुनि वारिसेण वि., मुनि वीरसेन वि., मुनि महासेन वि., मुनि विनयसेन वि., मुनि वज्रसेन वि. आदि ठाणाका संघ को योग प्राप्त हुआ।
प्रभावना व संघ पूजा :
पू. आचार्यश्रीने दक्षिणमें-महाराष्ट्रमें ६ चातुर्मास और आन्ध्रप्रदेशमें ३ चातुर्मास करके अपनी प्रभावक रोचकवाणीके प्रभावसे विविध नगरों में जैसेके प्रभु-प्रतिष्ठा :-शिवनी, सोलापूर, येवला, सिरुगुप्पा । उपधान तप :-नागपूर, हैद्राबाद । उद्यापन :सिकन्दराबाद,(२) सोरापूर । श्रीपाल (छःरो) संघ :-सोलापूर से कुलपाकजी (२५० मैल)। ज्ञान भंडार :-सोलापूर, यादगीरी। शांतिस्मात् पूजा:-नागपूर, येवला, सोलापूर, सिकंदराबाद, हैद्राबाद, अदोनी, कर्नुल, मुंबई (दादर)। सिध्धचक्रमहापूजन:-बालापूर, हिंगनघाट, जलगाँव, बिजापुर, कुलपाकतीर्थ, सिकन्दराबाद, आदोनी, यादगीरी, सोरापूर।
जिन मंदिर के शिला स्थापन-खात मुहूर्तः-सिकन्द्राबाद, कर्नूल। • अट्ठाई-पंचकल्याणक-रत्नत्रयो उत्सवें :-शहापूर, अंतरिक्षजी, येवला,
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हिंगनघाट, कर्जत, बार्शी, कुल्पाक, सिकन्द्राबाद, कर्नल, करमाला, रायचर, सिरुगुप्पा, कडप्पा, पाचोरा। धर्मशाला व उपाश्रय :सोलापूर, कर्नूल. आदि स्थानो में शासन प्रभावना के कार्य करते-करते अपने विशाल परिवार सह मद्रास के उपनगरों में जिनेन्द्रदेवकी अमृतवाणी का पान कराते हुए सैदापेट, मांबलम में पधारे, तब सुश्रावकों ने संघ पूजा का लाभ लिया, स्थले स्थले बैंड-बाजों साथ संघ द्वारा भव्य स्वागत होते रहे।
शहर में चातुर्मासार्थ प्रवेश:
संघ, जिनके स्वागत की तैयारी के लिये उत्सुक था, उन गुरुदेव का आसाढ सुव २ के दिन मंगल मुहूर्त के साथ शहर में भव्य प्रवेश हआ। संघ के भाई-बहिन विभिन्न प्रकार की पोशाक परिधान कर हर्ष के सागर में तल्लीन बनके सुलै की तरफ उनके भव्य दर्शनार्थ जा रहे थे। सुलै से स्वागत-यात्रा बैंड-बाजो, वाजित्रों के साथ, देव-गुरु की स्तुति और जैन-शासन की जय-जयकार के गंजते नारों के साथ शुरु हुई। जब गुरुदेव एलिफेंट गेट के पास आये, तब मद्रास संघ उनके सन्मुख सामैया के साथ आये। सामैया में प्रथम निशान डंका, शासन ध्वज लेकर चलते भाई लोग गजराज, आर. पि. बैंड, श्री चन्द्रप्रभु महिला मंडल, श्री पार्श्व जिन महिला मंडल, श्री जिनदत्तसूरि जैन मंडल, मित्र मंडल, युवक मन्डल, बाल मन्डल, श्री जैन मिशन धार्मिक पाठशाला,श्री जैन मिशन संगीत मंडली,श्री पावं जिन युवक मन्डल, अपनी-२ सुंदर सजाई हुई बैल गाडियों, ट्रंकों में दांडियारास, और नत्य आदि करते-२ गुरु गीत गाते-२ वातावरण को भक्ति से (मुखरिते) गूंजा रहे थे। इसके पीछे श्री चन्द्रप्रभ जैन मण्डल का बड़ बज रहा था। उनके पीछे आचार्य आदि मुनि मन्डल और विशाल जन-समूह बाद में आर्यागण और सैंकडो श्राविकाएं.
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मन्गलगीत गा रही थी। बीच-बीच में गहुँली आदि कार्य से गुरु को बधाया जा रहा था।
स्वागत यात्रा एलिफेंट गेट स्ट्रीट, विनायक मुदली स्ट्रीट, आदियप्पा नायक स्ट्रीट, गोविंदप्पा नायक स्ट्रीट, चाईना बाजार, मिन्ट स्ट्रीट से होकर जुनामंदिर में दर्शन कर श्री चंद्रप्रभु नयामंदिर में दर्शन कर उपाश्रय में सभा के रूप में परिवर्तित हुई और गुरुदेव ने मंगल देशना सुनाई। बाद में बाहरसे आये हुए मेहमानों को संघ ने भक्ति को। दोपहर में पंच कल्याणक पूजा पढाई गयो।
सूत्र तथा चरित्र का मंगल आरम्भः
गुरुदेव के प्रतिदिन प्रवचन ओर रविवारों के दिन जाहिर प्रवचन चलते थे। श्री संघ की मंगल प्रार्थना से गुरुदेव ने आषाढ़ वद २ से प्रवचन में श्राद्ध प्रतिक्रमण सूत्र ओर वस्तुपालचरित्रका वांचन आरंभ किया। सामुहिक तपश्चर्या :
पूज्यश्रीके प्रभाविक प्रवचनों से लोगों में धार्मिक भावना ओर तपश्चर्या करने की इच्छा प्रकट हुई, इसलिये नवकार मंत्र के तपका प्रारंभ हुआ. जिसमें लगभग ५०० तपस्दी लोगों ने भाग लिया। श्री संघ द्वारा नौ दिन एकासना की भक्ति हुई। फिर गौतमस्वामी के छट्ठ में २५० भावकों ने लाभ लिया। इसके बाद श्री पर्युषण पर्वमें ३१, ३०, १६, ११, अट्ठाई १००, क्षीरसमुद्र आदि भारि संख्या में तपश्वर्या हुइ, (काफि मात्रा में हुऐ) और चोसठ प्रहरी पौषध ५० संख्या में हुए थे। ८०० तपस्वीयों का समुहमें पारणा हुआ था। फिर श्री विजय मोदक तपमें २२५ साधकों ने, श्री अक्षयनिधी तपमें
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१५० भावकोंने ओर वर्धमान तप के पाया में ४८ तपस्वियों ने लाभ लिया। उनकी भक्ति निमित्त पारणा, ओर मूल्यवान प्रभावनाएं हुई। मंगल उत्सवें :
पूज्य गुरुदेव श्री लब्धिसूरीश्वरजीको नौंवी स्वर्गारोहणतिथि निमित्त श्री संघ द्वारा शांतिस्नान अष्टाहिकामहोत्सव, जुलुस गुणानुवाद सभा आदि हुई, ओर श्री पर्युषण पर्व में भी उत्सवों की मंगल योजना हुई. देवद्रव्य, ज्ञानद्रव्यादिको भव्य आमदानी हुई. पर्युषण के बाद मोगल सम्राट अकबर बादशाह प्रतिबोधक श्री हीरसूरीश्वरजी महाराज की ३७३ वीं स्वर्गाराहणतिथि मनाई गई। बाद में श्री जैन नया मंदिर में शांति स्नात्र अट्ठाई महोत्सव ओर श्री गुजरातीवाडी में सिद्धचक्र पूजन ओर श्री जुनादिर में शांतिस्नान, सिद्धचक्र पूजन सह अट्ठाई महोत्सव मनाया गया. ओर भवोभवके पुदगल बोसराने को भव्य क्रिया हुई, का. सु. १५ को दादावाडी में श्री सिद्धगिरि यात्रा निमित्त रथयात्रा, चैत्यवंदन, खमासमणां, नव्वाणुंप्रकारीपूजा, मद्रास संघ की नवकारशी आदि हुआ था। पू. गुरुदेव की मंगलमय देशना व प्रेरणा से उपधान तप, पांच छोडका उद्यापन जैसे महान अनुष्टान भी होने वाले है। मद्रास श्री संघ प्रार्थना करते हैं कि पू. गुरुदेव के करकमलों से शासन प्रभावना के महान कार्य ओर भी होते रहे।
निवेदक
श्री मद्रास जैन संघ . "लब्धिवाणी" शृंगार यही अंगार है। विषयोंकी मजा यही सजा है। स्नेहीयों का व्हाल यहीं आत्मा के बुरे हाल है। और भयंकर काल है।
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5 सोलवीं शताब्दी के जगदगुरु हीरसूरीश्वरजी 5
जन्मकाल :
इस परिवर्तनशील, संसार में प्रबल पुण्यराशिके साथ - जीव मनुष्य जीवन में आते है, और अपना देव-दुर्लभ अमूल्य मानवभवको विषय कषायके कीडे बनके व्यर्थ गमा देते है; याने प्राप्ति की जीत पराजीत में परिवर्तन कर देते है । किंतु उसका ही भव सफल होता है जो महापुरुषके सत्संग को प्राप्त कर स्वकल्याण के साथ अन्य जीवों को उर्ध्वगमन कराने के लिये दिवादांडी रूप बनते है ।
गुजरात- बनासकांठा जिले में धर्म-धन और बाह्य-धन से युक्त पालणपुर नामका बडा शहर था । उस नगर में सदा धर्म कार्य में आसक्त कुंकूंराशा श्रेष्टी बसते थे । उनकी शीलादि गुण वैभव सम्पन्न नाथीबाई नामक धर्म- प्रिया थी । सांसारिक सुखका उपभोग करते हुये आपको चार पुत्र और तीन लडकियाँ हुई थी । उनके नाम थे संघजी, सूरजी, श्रीपाल एवं हीरजी । और रंभा, राणी एवं विमला। हीरजीका जन्म वि. सं. १५८३ मार्गशिर्ष शुक्ल नवमी सोमवार के दिन हुआ था। 'पुत्रका लक्षण पालणे में' इस कहावत के अनुसार छोटे लडके होरजी का तेजप्रताप - देहलालित्य भव्य था एवं आकर्षित था । उनको बडे प्रेम से बुलाते थे और खोलाते थे । से धर्म प्रति आदरबाले थे । पूर्वका क्षयोपशम प्रवीण थे । व्यवहारिक ज्ञानाभ्यास के साथ धर्म गुरुवर के पास जा कर धर्म का तत्त्वज्ञान प्रसन्न चित्त से सुनते थे । जिससे उसने अपना अंतःकरण वैराग्य रंग से रङ्गित बना दिया था ।
इससे सब लोग
हौरजी लडकपन से ज्ञानमें भी
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दीक्षा और आचार्यपद :
जब हीरजी शिशुवयको विदा कर तेरह साल की नवीन विकसित युवावय में प्रवेश कर रहे थे। तब आपके माता-पिता नश्वर देह को त्यागकर स्वर्ग प्रति प्रयाण कर गये। वह वज्रघात सदृश वृत्तांत से आपका अंतर वेदनासे बहुत आक्रांत हो गया। मगर आपनें जिन-वाणी का सुधा-स्वाद गुरुमुखसे बार-बार लुटे थे। इस से आर्तध्यान वश न होकर आपके ज्वलंत वैराग्य में असार संसार का निमित्त दोगुणा बढ गये। इस दुःख को दूर करने के लिये आपको अपनी बडी बहिन विमला अपने ससुराल पाटण ले गई। मगर आपका आत्म-पंखी अब संसार-पिंजर को छोड कर मुक्त-विहारी बनने के लिये किसी रास्ते को ढंढ रहा था।
___ इतने में आपके पुण्यबलसे आकषित न हुये हो ऐसे परमोपकारी सकल शास्त्रविद् आचार्यदेव विजयदानसूरीश्वरजो महाराज का सपरिवार पाटण शहर में शुभागमन हुआ। मेघका आगमन से प्रजा आनन्द विभोर बन जाती है। ऐसे सूरीश्वरका पुनित पाद-कमल से जनता के हृदय में हर्ष की लहर छा गई। पूज्यश्री के हृदयंगम और वेधक देशना प्रवाह से भव्य जनों को पाप-राशि सफा हो गई, और मिथ्यात्व-अंधेरा दूर हट जाने से सम्यकत्व का सहस्र रश्मि दिप्तीमान हुआ। आपके सद्बोधसे हजारों जीवोने देशविरति और सम्यकत्व आदि प्रतिज्ञा लेकर जीवन को निर्मल बनाया।
इसमें युवा हीरजीनें भी गुरुवर के पास कम-विदारिणी भव-नौका सदश संयम देने की प्रार्थना की। तब पूज्यश्रीने
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आपकी पवित्र भावना को वैराग्य रूप नीरसे नव पल्लवित बना दी। और 'शुभस्य शीघ्रम्' व कहावत को सार्थक करने की प्रवल प्रेरणा भी दी।
___ होरजीने गृह पर आकर बडी बहिन को विनम्र होकर अपनी संसार त्याग की भिष्म प्रतिज्ञा जाहिर की। वह इलेक्ट्रीक करण्ट जैसे वचन को सुनकर बहिन मोहवश चैतन्यशुन्य हो गई। मगर आकठ वीर-वाणी का अमीपान किये थे। इसलिये हीरजी को महाभिनिष्क्रमण की न अनुमति दी, एवं संसार में ठहरनेका भी न कहा। और तीसरा राह मौनका आलम्बन लिया। होरजी बडे चतुर थे। वे समज गये। 'न निषिद्धं अनुमतं' व न्याय से उसने आचार्यश्री के पास आकर प्रव्रज्याका मुहूर्त निकाला। और वि. सं. १५९६ का. सु. २ सोमवार के शुभ दिन तेरह सालको उम्रमें हीरजी बड़ी धूमधामसे पुनित प्रव्रज्या के पथिक बने। तब से कुमार होरजी मुनि हीर हर्ष बने। स्वार्थी संसार का अंचला त्यागकर मुक्तिपथके विहारीसच्चे साधु बने। पू आचार्य देवने नतन मुनि पर अनुग्रह करके ग्रहण और आसेवन रूप शिक्षा का अनुदान दिया।
नूतन मुनिश्री नित नूतन अभ्यास और गुरु विनय-सेवा दोनों को अपना जीवन मुद्रालेख बनाकर संयमपर्याय में दिन व दिन प्रगति करने लगे।
गुरु महाराजने होरहर्षकी विनम्रता सह शास्त्राध्ययन में भारी प्रज्ञा देखकर उनको न्याय-तर्क आदि गहन शास्त्रों को पढने
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के लिये विद्याधाम दक्षिण देश के देवगिरि में मुनि धर्मसागर और मुनि राजविमल के साथ भेजें।
वहाँ से तनिक समय में शास्त्रावगहन करके त्रिपुटी मुनि गुरुवर के पास नाडलाई गांव में आये। तब हीरहर्षको पूज्य श्रीने वि. सं. १६०७ में गणि-पण्डितपद से विभूषित किया। इतना ही नहीं बल्कि वि. सं. १६०८ में माघ सुद ५ को नाडलाई में ही मुनि धर्मसागर और मुनि राजविमल के साथ मुनि होरहर्ष गणि को भी उपाध्याय-पद का दान दिया। उपाध्यायजी हीर हर्ष के चारों ओर से चरित्र प्रभा की कोति, ज्ञानका प्रकृष्ट वैभव, विद्वान शिष्य सम्पत्ति और शासन की रक्षा एवं प्रभावना की बडी तमन्ना इत्यादि गुण-मौक्तिकों से प्रसन्न होकर पू. आचार्य भगवतने सिरोही नगर में वि. सं. १६१० पोष सुद पंचमी के पवित्र दिन बादशाही ठाठ से पंच परमेष्ठी के तृतीयपद आचार्यपद पर हीर हर्ष उपाध्याय की प्रतिष्ठा की। तबसे सारा देश में आचार्य श्री विजय हीर सूरिजी नामसे मशहुर बनें।
कालराजा दिन-रात रूप दंडसे मनुष्य-आयुष्य का टुकडा ले नाता है। माँ कहती हैं, 'मेरा लडका बडा हुआ। मगर आयुष्यमें तो कम हुआ।' ऐसे विजयदानसूरि महाराजा आयुष्य पूर्ण होनेसे ससमाधि वि. सं. १६२२ वैशाख सुद १२ को वडावली में स्वर्गधाम सिधायें। तब सारे गच्छका भार विजय होर सूरीश्वरजी महाराज के शिरताज पर आ गया। श्री संघनें पूज्य श्री को गच्छ नायक-भट्टारक की पदवी का बहुमानकर अपना कर्तव्य का सच्चा पालन किया।
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विपत्ति की वर्षा :. सोने की ही कसोटी होती है, पीतल की नही ।
एक बार विजय हीरसूरीश्वरजी महाराज अपने परिवार के साथ खंभात नगरमें विराजीत थे। तब रत्नपाल नामक एक श्रावक आया। उसने कहा, गुरुवर ! मेरा लडका रामजी तीन सालका है। वह बहुत बीमार रहता है। आपके प्रभाव से जो लडका अच्छा हो जायगा, तब आपका शिष्य बनाएंगा। अचानक आपके प्रभावसे रामजी दिन व दिन अच्छे होने लगे। और इस बात को आठ साल हो गये। पू. हीर सूरीश्वरजी विहार करते करते पुनः खंभात पधारे। पूज्यश्रीने रत्नपाल को अपना वचन पालन करने को कहा। तब रत्नपाल सूरीश्वरजी को कहने लगा, आपको मैंने ऐसा कब कहा था, ? व कहकर बदल गया। इतना हि नही बल्कि उसने अपने रिस्तेदारों को बुलाया और कहा, आचार्य होरसूरीश्वरजी मेरे लडके को उठा ले जाते है। तब सुबा सिताबखाँ को कहा। सुबा सिताबखांने हीर सूरि को जेल में डालने के लिये आज्ञा दे दी।
इस समय सारे गुजरातमें नादीरशाही चलती थी। न्याय और अन्यायको देखते ही नहीं थे। जिससे प्रजा अत्यंत साहित बन गई थी।
होर सूरिजी को ये समाचार मिल गया। इसलिए उन्हें २३ दिन तक गुप्त स्थानमें रहना पड़ा।
ओर भी वि. सं. १६२० सालमें बोरसद गांवमें घटना घटी कि, जगमाल ऋषिनें पू. होरसूरीश्वरजी महाराज के पास Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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आकर कहा कि, मेरे गुरुजी, मेरी पुस्तकें नहीं देते है। सूरिजीने सहज भावसे कहा, आपने कोई गुहा किया होगा। इसलिये नहीं देते होंगे। वह यह सुनके जगमालजीको संतोष न हुआ। बल्कि होरसूरिजी पर क्रोधित होकर वहाँ से पेटलाद गांव गये। और वहाँ के हाकिम को हीरसूरिके विरुद्ध बडा दोष लगाकर उनको पकडने के लिये दो-तीन बार सिपाहिओं को भेजा। मार सूरिजी मिले नहीं। इस उपद्रवसे बचानेके लिये श्रावकोंने घूस देकर हीरसूरिजी महाराज को सांत्वन दिया।
_ वि. सं. १६३४ में विजय होरसूरिश्वरजी महाराजाका कुणगेर (अमदावाद) में चातुर्मास था। तब उस समय उदयप्रभ सूरिने आचार्य श्री को कहलाया। आप, वहाँ सोमसुंदर सूरि चर्तुमास बीराजे है, उनके साथ क्षमापना कर दो। हीर सूरिजीने कहा, मेरे गुरुजीने खमत खामणां नहीं किया है, मैं कैसे करूँगा। इस असाधारण निमित्त से उदयप्रभसूरि बडे इर्षान्वित बन गये। और पाटण जाकर वहाँ का सुबेदार कलाखांको उल्टा-सुल्टा समझा कर, हीर सूरिजी को कैद करने के लिये एक सौ सिपाहिओं को भेजा। मगर वडावली संघनें तीन महिना तक सूरिवर को गुप्त रक्खा और बचा लिया।
__ विजय हीर सूरिजी महाराज विहार करते वि. सं. १६३६ में अमदाबाद पधारे। तब हाकेम शहाबखाँने आकर कहा। क्या आप वर्षा को रोकते हो? इससे आपको क्या लाभ है ? व गलत समाचार सुनकर सूरिजीने कहा, भाग्यशाली, हम तो चीटीयांसे लेकर कुंजर तक दया करनेवाले है। याने सारे नगत
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के प्राणियों के साथ मंत्रीभाव करनेवाले है। और समस्त जीव लोक सुख-शान्ति आबादी के साथ धर्ममय जीवन व्यतीत कर कल्याणपथ के यात्री बनें ऐसी प्रार्थना करते है।
- ऐसी बात चल रही थी इसमें इधर के सुप्रसिद्ध कुंवरजी भाई श्रावक वंदनार्थ आये। उसने जैन साधु कैसी मर्यादा से पवित्र जीवन बिताते है। उनका परिचय दिया। वह यह सुनकर हाकेम बडा खुश हो गया। और उपाश्रय के बाहर आकर दीन-दुःखी को दान दिया।
इतने में एक पुलिशपार्टी वहाँ आई। और समाधान सुनकर वे कुंवरजी श्रावक के साथ चर्चा करने लगे। इसमें कुछ मामला तंग हो गया। पार्टीने कोटवालके पास जाकर उनको vill Power चढाया। कोटवालने होरसूरिको कैद करने के लिए हुकम के साथ पुनः पार्टी भेज दी। मगर पहिले मालुम हो जानेसे वहाँसे हीरसूरिजी नग्न देहे भगे। और वहाँ देवजी लौंकाने आश्रयदान दिया। कितने दिनों बाद हल-चल मिट गई। और हीरसूरि महाराज शान्ति से गांव-नगर विहार करने लगे।
"लब्धिवाणी" सरकार का वारंट किसी भी निमित निकालकर पीछे हटा सकोंगे। मगर मृत्मु का वारंट पीछे
हटा नहीं सकोंगे।
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मुगल बादशाह का आमन्त्रण :
'अकबर की सभा पांच विभागों में विभक्त थी । इसमें पहिले लाइन में १६ वाँ नंबर में हरजी सूर है।' ऐसी सूची आइने अकबरी नामक ग्रंथ में है । वो ही अपने चरित्र नायक आचार्य विजय होर सूरीश्वरजी महाराज ।
कौनसा निमित्तसे आचार्यदेव की अकबर के साथ मुलाकात हुई इस प्रसङग को जानने के लिये वाचक को भी बडी तमन्ना हो गई होगी । अतः अब जानकारी दे देता हूँ ।
दिल्ही के मेइन रोड पर भारी हलचल मचगई है । बैन्ड और शहनाई का मधुर स्वरोंदो गगन को भेद कर रहे है । जैन शासन की जय, महातपस्वी चंपाबाई की जय, ऐसा जय-जय का बुलंद नादोनें दिशाओं को शब्दमय बना दिया है । महा तपस्वी का भव्य जुलुस सडक पर से जा रहा है ।
झरुखा में बैठे हुवे सारे हिंदुस्तान के बादशाह अकबर व जुलुस को देखकर पास में खडे हुए सेवक को पूछने लगा, वह कौन सा जुलुस है । तब सेवक ने कहा, राजन् ! चंपाबाई श्रावीकानें छ महिना का उपवास ( रोजा) किया है। वह अपने जैसा रोजाउपवास करते है, ऐसा नहीं, किंतु दिनरात खाना नहीं और सूर्योदय के बाद आवश्यकता हो तो गर्मपाणी पीते है । वह सूर्यास्त के बाद पाणी भी नहीं लेते है । ऐसी महान उपवास की तपश्चर्या श्रावकानें की है ।
अकबर वह सुनकर राहु से ग्रस्त है ऐसा ठंडा हो गये । और आश्चर्य से
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सूर्य कैसा ठंडा हो जाता बोलने लगा, ऐसा क्या
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हो सकता है ? हम एक दिन रोजा करते है तो थक जाते है, और रात को खाना खा लेते है ।
तब चंपाबाईनें राग-द्वेष आदि
बादशाहने दो आदमी मंगल चौधरी और कमरुखां को चंपाबाई के पास भेजा और कहलाया । आप, ऐसी महान् तपश्चर्या कौन से प्रभाव से कर सकते हो । कहा, मेरा तप देव- गुरुकी कृपा से चल रहा है । १८ दोषों से रहित वीतराग देव है । और कंचन - कामिनी के त्यागी - पाद विहारी - माधुकरी वृत्ति से जीवन निर्वाह करनेवाले गुरु है । ऐसा त्यागी मेरा गुरुदेव विजय होरसूरीश्वरजी महाराज अब गुजरात के गंधार बंदर में बीराजते है । उनके प्रभाव से मेरी महान तपश्चर्या चल रही है ।
बादशाहनें सेवकों द्वारा चंपाबाई का वृत्तांत सुनकर बंडा आनन्द हुआ । और विजय होरसूरिजी को मिलने को बडी उत्कंठा हुई । इतना ही नही बल्कि चंपाबाई को अपने महल में बुलाकर सम्मान के साथ सोनेके चूडा की बहरामणी दी । और अपना शाही बाजे भेजकर जुलुस की शोभा द्विगुणी बढाई ।
कोक पक्षी जैसा सूर्य को चाहते है ऐसे अकबरको हीरसूरि को मिलने की बडी तमन्ना हुई । और इधर बुलाने के लिये आपनें सोचा, एतमादखां गुजरात में बहोत रहे है । वो जरूर पहचानतें होंगे । उसने एतमादखां को बुलाया । और होरसूरिजी का परिचय पूछा । तब एतमादखांनें कहा, वो तो बडा धर्मात्मा-फकीर है - दूसरा खुदा है । पैदल चलते है, सोना
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और सुंदरी से दूर रहते है। स्वयं केश लोंछन करते है। माधुकरी से जीवन-वृत्ति चलाते है इत्यादि कई गुणों का गुणगान करके बहुत प्रशंसा की। तब अकबरने अपना हस्ताक्षर से विनंति पत्र और दूसरा आग्रा जनसंघ का पत्र, इन दोनों पत्र के साथ माणुकल्याण और थानसिंहरामजीको अहमदाबाद गुजरात के अपने सुबा शाहबखां के पास भेजा। दोनों सेवकने अविरत प्रयाण कर अहमदाबाद आकर शाहबखां को दोनों पत्र दे दिया ।
शाहबखांने विनम्र होकर पत्र को शिर पर चढायें । और पत्र पढने लगे। इसमें क्या लिखा होंगे व सुनने को वाचक भी बडे. उत्साहित बन गये होंगे।
"आचार्य होरसूरि को हाथी, घोडे, पालखी, हीरा, मोती, इत्यादि किसी भी साज चाहिये वो देकर सम्मान के साथ दिल्ली की ओर प्रस्थान करावें।"
शाहबखां पढकर बहुत आनन्दित हुये। और मनमें शर्म भी आई, कि मैंने उस महापुरुष का बडा अपराध किया है। इसलिए मैं अपना मुँख उस महात्मा को कैसे दिखाऊं। पुनः सोचा, वो तो बडे करुणा के अवतार है। सबके उपर अनुग्रह को छांट डालनेवाले है। ऐसे अपना मनको उत्साहित करके अहमदाबाद के अग्रणी श्रावकों को बुलाया। और दोनों पत्र दिया। पत्र को पढकर सब हर्ष और खेद के हिंघोले हींधने लगे ।बादशाह के आमंत्रण से आनन्द हुआ। और खेद भी इसलिये हुआ कि, बादशाह बुलाकर क्या करेंगे? किसी विरोधीने बादशाह को क्या-क्या कहा होगा? क्या मालुम? म्लेच्छ राजबी है।
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सब ने सोचा, बादशाह का पत्र है। इसलिये हीसूरिजी को वाकेफ करना ही चाहिये। और खंभात जैन संघ को पत्र से ईतला देकर गंधार बुलाना। और अपना संघ, खंभात संघ, गंधार के श्रावकें सब मिलकर विचार विनिमय करेंगे।
दो पत्र को लेकर अहमदाबाद संघ, खंभात संघने सूरिवर की निश्रा में आकर दोनों पत्र गुरुकरांबुज में दे दिया। इस तरह तीनों संघो की मिटींग हुई। गुरुवरको जाने देगा कि नहिं इस पर गंभीर विचार विनिमय हुआ। अंत में सब एक राय पर आये कि, सूरिवर जैसा फरमावें ऐसा करना।
तीनों संघ के अग्रणी सूरियर के पास आये, पूज्यश्रीने रुपेरी घंटडी जैसा मधुर स्वर से सबको पूर्व महर्षिओंने राजाओं के पास जाकर कैसी शासन प्रभावना कि उनका परिचय दिया । यह सुनकर सब को रोमराजी विक्स्वर हो गई। और एक ही आवाज बोलने लगे, पूज्यश्री को जरूर बादशाह को पास जाना ही चाहिये।
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" लब्धिवाणी" लक्कड जैसे अक्कड, मानव को जन्म मरण की
पक्कड मजबूत बन जाती है ।
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गंधार से प्रस्थान :
सूरिजीनें मार्गशिष कृष्ण सप्तमी को प्रस्थान करनेका मंगल निर्णय जाहिर किया। मुक्ति की ओर जाने फौज न चली हो ऐसी साधु मंडली आचार्यश्री के साथ विहार करने लगी । तब सारा संघ के एक नयन में गुरु विरहका अश्रु और दुसरा नयनमें बादशाह को प्रतिबोध देंगे उस आनन्द का अश्रु अविरत बहने लगे । और विदा देने साथमें चला । पूज्यश्रीनें शहर के बाहर मंगलिक सुना कर धर्म ध्यान में स्थिर रहनेका धर्मोपदेश दिया । जब तक सूरिजी नयनपथमें दिखाये तब तक गुरुदर्शनामृत पान करके संघ खेदित हृदय वापिस आ गये ।
विहार करते हुए सूरिजी वटादरा में पधारे । यहाँ रात्रि को पू. सूरीश्वर को एक देवीनें मोतीओं से वर्धापन की । और मंगलाशिष दिया कि, आप सुखपूर्वक बादशाह के पास पधारें । आपको बडा लाभ मिलेगा और शासन प्रभावना में अभिवृद्धि होगी । इतना कहकर देवी अंतर्धान हो गई । व सुखद समाचार सुनकर सूरिजी के मुख पर आनन्द के चार चाँद उदित हो गये ।
वहाँ से सूरि भगवंत अहमदाबाद पधारे । संघ द्वारा किया हुआ भव्य स्वागत यात्रा में सुबा शाहबखाँ भी आये थे । उसने गुरु चरण में अपना शिर रखकर पूर्वी किया हुए अपराध की क्षमा याचना मांगी। और बादशाह का भावपूर्ण निमंत्रण को और किसी भी वाहन चाहिये इत्यादि की विनंती को । सूरिजीनें अपने आचारका वर्णन किया । इधर से पत्र लेकर आये हुये दो सेवक भी सूरिजी के साथ चलने लगे ।
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सूरिजी भगवंत पाटण पधारे, तब विजयसेनसूरि, उपा. विमलहर्षगणि संघ के साथ सामैया में पधारे थे। विजयसेन सूरि को गुजरात में रखकर सूरिजी आगे विहार करने लगे। उपाध्याय विमल हर्ष गणि ३५ मुनिवर के साथ उग्र विहार करते हुए दिल्ली पहिले पधार गये ।
अबुल फजल द्वारा अकबर बादशाह के साथ उपाध्याय का मिलन हुआ। आप साधु किस कारण बने ? आपके महान तीर्थ कौनसा है ? इत्यादि बहुत प्रश्नों बादशाहनें, पूछे । उपाध्यायनें ऐसी तर्क-दष्टांत के साथ समजौति दी कि बादशाह सुनकर आनंद विभोर बन गये। और नमन करके हररोज धर्मोपदेश देने जरूर पधारना ऐसी प्रार्थना भी की।
पू. उपाध्यायने सूरिवर के पास श्रावकों को भेजकर विनंती को, कि बादशाह आपके दर्शन और धर्मोपदेश सुनने को चातक पंखी की तरह आतुर है। दूसरा कोई कार्य नहीं है। आप शान्ति से पधारना और स्वास्थ्य को संभालना।
पाटण से विहार कर सूरिजी आबू पधारे। तब बीच जंगल में सहस्त्रार्जुन नामक भीलों के सरदार को उपदेश देकर मांस नहीं खाने का अभिग्रह कराया।
वहां से सूरिजी सिरोही पधारे। संघने सुंदर सामया किया इसमें महाराज सुलतान भी साथ थे। सूरीश्वरको सक्करशी देशनासे महाराजाने शिकार-मांसाहार-मदिरा एवं परस्त्रीगमन, इन चारों का नियम लेकर अपने जीवनको सफल बनाया।
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जब सूरिवर मेडता पधारे तब राजा सादिमने आपका भव्य एवं प्रभावक स्वागत किया। वहां से आपका ज्येष्ठ सुद १२ के दिन आग्रा में पुनित पदार्पण हुआ। तब संघने ११ मैल से कल्पनातीत अप्रतिम बडा सामैया किया था। आपके साथ में तब नैयायिक-वैयाकरणचतुर, शतावधानी एवं विविध विषय के प्रकाण्ड मुनिवर ५७ थे।
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"लब्धिवाणी" महिला ओंकी मधुर वाणी, मीठी स्नेहाल दृष्टि और कारमी काययस्ती यह व्रण एक म्यान में रही हुई तलवार जैसी पलवारमे अघोगतीमे
ले जाती है।
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" लब्धिवाणी" कामी और हरामी आत्माओं को आत्मरामी आत्माएं आंचमे गिरे हुए तिनका, जैसा लगता है ऐसा ही दुःखता है
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बादशाह को प्रतिबोध :
ज्येष्ठ सुद १३ का दिन सारे जनसंघके इतिहास में Goldenson जैसा उदित हुवा था।
क्योंकि आज सारा राष्ट्र के सम्राट और सारे जैन संघ के सार्वभौम सूरिजी का सुभग मिलन हुआ था।
सरिजी अपने विविध विषयोंके निष्णात १२ साधुकी मंडली के साथ अकबर को धर्मोपदेश देने के लिये अबुलफजल के महलमें पधारे। बादशाह कुछ कार्य में व्यस्थ थे। इधर सूरिजीने आयंबील कर दिया । तब बादशाह का आमंत्रण आया ।
सूरिजी राजसभाके द्वार पर पधारे तब बादशाहनें सिंहासन पर से उठकर निजी तीन पुत्रों के साथ अभिवादन कर नमन किया। सूरिजीने धर्मलाभका मंगल आशीष दिया। सूरिजी के दर्शन से बादशाह के मुखपर हर्षको लालिमा छा गई। और अपने बैठक तक ले गये।
बादशाह खडे है और सूरीश्वर भी खडे है। अकबरने क्षेमकुशल को पृच्छाकर कहा, आप मेरे पर बहुत कष्ट के पहाड को पार करके आये हो, इसलिये मैं आपका अहसान मानता हुं और कष्ट के लिए क्षमा चाहता हुं। आपको मेरे सुबाने कुछ भी साघन नहीं दिया।
सूरिजीने उत्तरमें कहा, आपकी आज्ञासे मुझे सब कुछ देने को वे तैय्यार थे। किन्तु हमारा धर्माचार ऐसा है कि कोई भी
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वाहन का उपयोग नहीं करना । एक पैसा का भी परिग्रह नहीं रखना । पैदल चलना, माधुकरीसे जीवन निर्वाह करना इत्यादि सुणायें । आपने क्षमा याची, वो आपकी सज्जनता है । इस वार्तालाप में बहुत समय हो गया और ज्यादा धर्मोपदेश सुनने के लिये अपने कमरे में ले जाते है । तब सूरिजी कमाडके पास रुक गये ।
।
आप क्यों रुक गये ?
बादशाहने पूछा, सूरिजीने कहा, इस गालीचा पर पाँव रखकर हम नहीं आ सकते । क्योंकी हमेरा आचार है कि चलना हो बैठना हो तो अपनी नजर से देखकर चलना बैठना । जिससे किसी जीवको दुःख न हो और वे मर न जावे । धर्मशास्त्र भी फरमाते है, 'दृष्टि पुतं न्यसेत् पादम् '
करते है तो
बादशाहनें कहा, हमारे सेवक रोजाना साफ क्या इसमें चिटियां घुस गई व बोलकर अपने हाथ से एक ओरसे गालीचा का छेडा उठाया । तब बादशाह आश्चर्य के सागर में बुड गये । और लाखों चिटियाँ देखकर सूरिजी के प्रति श्रद्धा सौ गुणी और बढ गई । अकबरने अपने रेशमी वस्त्र के अंचल से चिटियाँ दूर करके प्रवेश कराया । और अपनी भुलकी क्षमा मांगी।
सूरिजीनें सच्चे देव, गुरु और धर्मका संक्षेपमें उपदेश दिया । उपदेश सुनकर सूरिजीके पांडित्य और चरित्रका बादशाह के हृदयमें बडा आदरभाव हुआ । इतना ही नहीं अपने पास पध्मसुंदर नामक साधुका ग्रंथालय था उन पुस्तकों को ग्रहण करने की प्रार्थना की।
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सूरिजीने मना किया मगर बादशाह के बहुत आग्रह करने पर पुस्तकें लेकर अकबरके मामसे आगरा में पुस्तकालय की स्थापना कर उन पुस्तकों को वहाँ रख दिया। और सूरिजोनें कहा, हमको जरूरत होगी तब पुस्तकें मँगवायेंगे। सूरिवरका त्याग देखकर बादशाह के मन पर बहुत बड़ा प्रभाव पडा और आनंदको खुशीमें उन्होंने दान दिया।
उस समय पर बादशाहने पूछा, मेरी मीनराशिमें शनैश्चरको दशा बैठी है। लोग कहते है वह दशा बहुत कष्ट देनेवाली है। तो आप ऐसी कृपा करो जिससे यह दशा मीट जाय ।
सूरिजीने स्पष्ट शब्दोमें कहा, मेरा यह विषय नहीं है, मेरा विषय धर्मका है, यह ज्योतिषकी बात है।
बादशाह ने कहा, मेरे को ज्योतिषशास्त्रके साथ संबंध नहीं है, आप ऐसा कोई तावज-मंत्र-यंत्र दो जिससे मुझे इस ग्रह को शान्ति मिले।
सूरिजीने कहा, वो भी हमारा काम नहीं है। आप, सब जीवों पर रहेम नजर कर अभयदान दोंगे तो आपका भला होगा। निसर्गका नियम है कि दूसरे की भलाई करनेवालों को अपनी भलाई होती है। यह उपदेश देकर सूरिजी उपाश्रयमें पधारे।
थोडे दिन बाद सूरिजी आगरा पधारे। चातुर्मास आगरा में किया। श्रावकोने सोचा, बादशाह सूरिजीके भक्त बने है, तो पर्युषणके आठों दिन अमारी को उद्घोषणा हो जाय तो लाभ होगा।
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श्रावकोने आकर सूरिजीको विनंती की। सूरिजीने सम्मति दी, और अमीपाल आदि अग्रणी श्रावकोंका डेप्युटेशन बादशाह के पास आया। श्रीफल आदि नजराणा भेट दिया। और साथ में कहने लगे कि आप नामदारको, पू. सूरि भगवंतने धर्मलाभका मंगल आशीष दिया है। आशिर्वाद सुनकर बादशाह के मुख पर प्रसन्नताको सुखी छा गई, और बोलने लगा, सूरि महाराज कुशल है न ? मेरे योग्य कुछ आज्ञा फरमाई है ?
अमीपालने उत्तर दिया, आचार्यश्री बडे कुशल है, और आपको अनुरोध किया है कि हमारा पर्युषणपर्व आ रहे है। इसमें कोई जीव किसी मुकजीवकी हिंसा न करे ! आप इस बातकी मुनादि करानेदोंगे तो अनेक मुक जीव आशीर्वाद देंगे, और मुझे बडा आनन्द होगा। बादशाहने आज्ञा दे दो, और आगरा में आठों दिन अमारीका ढंढेरा पीटवा दिया. वह साल था वि. सं. १६३९ का।
आप आगरामें चातुर्मास व्यतीतकर शौरीपुर तीर्थ यात्रा करके पुनः आगरा पधारे। प्रतिष्ठा आदि धर्मकार्य कर दिल्ही पधारे। कई बार बादशाह के साथ आपको मुलाकात हुई।
एक बार सूरिजी अबुलफजल के महलमें धर्मगोष्ठी कर रहे थे। अकस्मात बादशाह वहाँ आ गये। अबुलफजलने स्वागत किया, और आसन पर बैठनेकी प्रार्थना की। अबुलफजलने सूरिजी की विद्वत्ता की भूरी भूरी प्रशंसा की।
प्रशंसा सुनकर बादशाहके मनोमंदिरमें भाव जग गये। सूरिजी जो मांगे वह दे के उनको प्रसन्न कर देना चाहिये । उसने सूरिजीको प्रार्थना की, कि आप ! अमुल्य समय खर्चकर उपदेश
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देके हमारे पर उपकार कर रहे हो। उनका बदला तो नहीं हो सकता, मगर मेरे पर कल्याणार्थे आप मुझे कुछ कार्य की आज्ञा बताये ! भापकी कौनसी सेवा करुं जिससे आप खुश हो।
बादशाह की इतनी भक्ति-इतनी उत्सुक प्रार्थना देखकर सूरिजौको अपना स्वार्थ के लिये, अपना गच्छ के अपना अनुयायी भक्तों के लिये कुछ बात न की। क्योंकि वे समझते थे, कि संसार में सर्वोत्कृष्ट कार्य जीवोंको अभय दान देना है। अतः जब जब बादशाह ने कार्य पूछे-सेवा का लाभ पूछे, तभी उन्होंने जीवोंको सुख-शान्ति-आबादी. अभय दान देनेका बचन माँगा।
इस समय बादशाहने सेवा-कार्य पूछे, तब सूरिजीने कहा, आपको यहाँ हजारों पक्षी दरबार में बंद है, उसको मुक्त कर दो। और डाबर नामका जो बडा तालाब है, उसमें से कोई मछलियाँ न पकडे ऐसा हुकम कर दो।
उस समय वार्तालापमें सूरिजीने पर्युषणका आठ दिन सारे राष्ट्र में अमारी की उद्घोषणा की जाय ऐसा उपदेश भी दिया।
बादशाहने अपने कल्याणार्थ चार दिन इसमें ज्यादा कर बारह दिनका फर्मान निकालनेकी स्वीकृति कर दो। फर्मान पर शाही महोर और अपना हस्ताक्षर करके सारे सुबोंको भेज दिया। एक फर्मान थानसिंह को दिया। उसने भस्तक पर चढाया और बादशाह को फूलों और मोतीयां से बधाया।
एक फर्मान गुजरात-सौराष्ट्र, दूसरा दिल्ही, तीसरा नागोर, चौथा मालवा-दक्षिण, पाँचवा लाहोर-अजमेर, और छट्ठा सूरिजी को दिया।
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इस फर्मानसे लोकमें अनेक प्रकारको चर्चा होने लगी। केई बोलने लगे, सूरिजी कितने प्रभावशाली है, बादशाह को अपना भक्त बना दिया। कई कहने लगे, सूरिजीने बादशाह की सात पेढी दिखाई। कई अनुमान करने लगे, बादशाहको सोनेकी खाण दिखलाई। और कई बोलने लगे, फकीरको टोपी उडा कर चमत्कार बताया। मगर ये सब किंवदन्ती है। ऐतिहासीक सत्यके विरुद्ध है। मगर सूरिजी अपने चरित्र के प्रभावसे सब मनुष्य में सद्भाव उत्पन्न करते थे। उनका मुखारविंद इतना शान्त और प्रभावक था कि क्रोधसे जला हुआ क्रोधी मनुष्य उनके दशन से प्रशान्त बन जाता था। आपके चरित्र के प्रताप से बादशाह आपके वचन को ब्रह्मवचन तुल्य समझते थे।
क्योंकि अकबर में यह एक अनुकरणीय गुण था। वे उस महात्मा को ज्यादा सम्मान देता था, जो निःस्पृही-निर्लोभी एवं नगतके सारे प्राणीयों को अपने समान देखनेवाला होता था। इस गुणके कारण बादशाह सूरिजीका सम्मान करता था और उपदेशानुसार कार्य करता था।
बादशाह और सूरिजी के बीच खुल्ले दिलसे धर्म चर्चा चल रही थी। उस समय सूरिजीने कहा, मनुष्य मात्र को सत्य का स्वीकार करने की रुचि रखनी चाहिये। जीव अज्ञानावस्थामें दुष्कर्म करते है, मगर जब सज्ञानअवस्था प्राप्त होती है तब पश्चात्ताप के अगनमें जल कर शुद्ध हो जाना चाहिये।
बादशाहने कहा, महाराज ! मेरे सब सेवकें मांस खाते है। अतः आपका अहिंसामय उपदेश अच्छा नहीं लगता। वे लोग कहते है कि, जिस कार्य को सदियों से करते आये है, उस कार्य को छोडना नहीं चाहिए। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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एक बार सब सरदार-उमराव इकठ्ठे होकर, मेरे को कहने लगे, बापका सच्चा बच्चा वो है, जो अपने परंपरा से आये हुये मार्ग को छोडता नहीं उन्होंने एक उदाहरण दिया। व सुनकर उसका विरुद्ध दृष्टांत मैंने भी दिया। किन्तु वो सब रसनेन्द्रियके लालचू थे। इसलिये छोड नहीं सकते।
महाराज ! दूसरों की बात जाने दो। मैंने भी खुद ऐसे ऐसे पाप किये है। ऐसा किसीने नहीं किया होगा। जब मैंने चित्तोडगढ जीत लिया उस समय राणा के मनुष्य-हाथी-घोडे मारे थे। इतना ही नहीं चित्तोड के एक कुत्तेको भी नहीं छोडा था। ऐसे पापसे मैंने बहुत से किल्ले जीते है। सूरिवर ! मुझ को शिकार का भी बहुत शाँख था। मेडता के रास्ते पर २२४ हजोरों पर पांचशे-पांचशें हिरण के सींग टींगाये है। अरे, हर धरमें एक हरणका चमडा-दो सींग और एक महोर बाँटी थी। गुरुजी ! आपको क्या मेरी करुण कहानी सुनाऊं, मैं रोजाना पांचशौ-पांचशौ चिडिया की जीभ बड़े स्वादसे खाता था । जबसे आपका दर्शन हुआ और उपदेश-वाणीका पालन किया है तब से वह पाप छोड दिया। इतना ही नहीं शुद्ध अंतःकरण से मैंने छःमहिने तक मांसाहार नहीं करनेकी प्रतिज्ञा भी की है। अब तो ऐसी मांस से नफरत हो गई है कि हमेशा के लिये मांसाहार छोड दूं।
सूरि भगवंत बादशाह की सरलता एवं सत्यप्रियता देखकर राजीके रेड बन गये और उनके पर बार-बार धन्यवाद का बारीश बर्षाया।
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इतने में देवीमिश्र नामक ब्राह्मण पंडित वहां आये। बादशाहने पूछा, पंडितजी ! सूरिजी कहते है व ठीक है या नहीं। पंडितजीने कहा, हजूर ! सूरिजीके वाक्य वेदध्वनि जैसे है, इसमें कुछ विरुद्ध नहीं। वे तो बडे विद्वान, तटस्थ एवं स्वच्छहृदयी महात्मा है। इस वाक्य से सूरिजीको ओर बादशाहकी श्रद्धा बज्रलेपबत् बन गई इसमें कोई आश्चर्य नहीं है।
सम्य बहुत हो गया। बादशाह महलमें गये और सूरिजी उपाश्रयमें पधारे।
सूरिजीको बार-बार मुलाकात से और विविध विषयको चर्चा से बादशाह को बहुत आनन्द हुआ। और सूरिजीको विद्वता से आफ्रीन होकर बोलने लगे, गुरुजी को जैन लोग जैन गुरु की तरह मानते-पूजते है। मगर वो तो सारे राष्ट्र को वन्द्य और पूजनीय है। इस लिये उनका भारी सम्मान करना चाहिये । ऐसा सोचकर वे विचार में बैठ गये।
एक दिन अपनी राजसभा में सूरिजोको 'जगद्गुरु' पदसे अलंकृत किया और इस पद-प्रदानके हर्षमें बादशाहने पशु-पंखीको बंधन से मुक्त कर आजादी दे दी।
एक बार धर्मचर्चा चल रही थी। उस समय बीरबलको भी प्रश्न पूछनेकी अभिलाषा हुई। इसलिये बादशाह की अनुज्ञा याची। बादशाहने मंजूरी दी। तब बीरबलने शंकर सगुण के निर्गण, ईश्वर ज्ञानी के अज्ञानी इन दो विषय के प्रश्न पूछे, सूरिजीने तर्क और विद्वताके साथ ऐसा समाधान किया कि, बीरबल सुनकर बडे खुश हो गये।
इस मुलाकात के बाद बहुत दिन तक सूरिजीको बादशाह मिल न सके। इसलिये सूरिजीको मिलनेकी सम्राटको बडी
आतुरता हुई। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सूरिजी पधारे और प्रभावोत्पादक उपदेश सुणाया। इस बार सूरिजीने सम्राटको महत्त्वका कार्य बतलाया कि, आप ! मेरे कथनानुसार कई अच्छे अच्छे कार्य करते हो। तो भी लोक कल्याण की भावना मेरे अंतरमें प्रगट हुई है कि, आप अपने राज्यमें से 'जजिया' कर उठालो, जो तीर्थों में हर यात्रीके पास टेक्स लिया जाता है व बंद करा दो। क्योंकि इन दो बातों से लोगों को बहुत दुःख होता है, वह नहीं होगा। इससे जन-वर्गमें आनंद की लहर बढेगी और सब आपको कल्याण के आशीष देंगे। उसी समय बादशाहनें दोनों फर्मान लिख दिये।
सूरिजी दिल्लीमें रहे थे। मगर बीच • बीच मथुरा, ग्वालियर आदि तीर्थोकी यात्रार्थ भी पधारे थे। यात्रा करके पुनःसूरिजी आगरा पधारे तब सदारंग नामक श्रावकनें हाथी, घोडा आदि कई पदार्थों का दान देकर भव्य स्वागत किया था। इधर बहुत समय हो जाने से विजयसेन सूरिजी का बार-बार पत्र आते थे। आप शीघ्र गुजरात पधारिये।
एक बार समय देखकर सूरिजीने बादशाह को कहा, मेरे को गुजरात अवश्य जाना ही पडेगा। तब बादशाहनें कहा, आप इधर स्थिरता किजीये। आपके सुधा-सदश दर्शनसे मेरेको बहुत लाभ हुआ है। मगर सूरिजो को जाने का दृढ निश्चयसे बादशाह ने अनुमति दी। और जब तक इधर विजयसेनसूरिजी न पधारे तभी आपके एक विद्वान मुनिवर को इधर रखकर जावे इतनी मेरी आपसे प्रार्थना है।
सूरिजीने उपा. शान्तिचंद्रजीको रोककर दिल्लीसे गुजरात प्रति प्रस्थान किया।
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___28
शिष्यों द्वारा विशेष बोध :
अकबरने अपनी धर्मसभामें जैसा विजयहोरसूरिजीको पहले श्रेणी में नाम रखा था। ऐसे पांचवीं श्रेणीमें विजनसेमसूरि
और भानुचंद्रगणि दोनों का नाम रखा था। (आइन. इ. अकबरी ग्रंथः विजयसेनसूर और भानचंद)
उपाध्याय शान्तिचन्द्रजी महान विद्वान और १०८ अवधान कराने की अप्रतिमशक्तिवाले थे। उन्होंने राजा महाराजाओंको प्रभावसम्पन्न उपदेश सुनाकर बहुत सम्मान प्राप्त किया था। और अनेक विद्वानोंके साथ वाद-विवाद कर विजय-वरमाला के वर बन चुके थे। उन्होंने बादशाह को अहिंसाका भक्त बनानेके लिये २२८ श्लोक प्रमाण 'कृपारसकोष' नामक ग्रंथ बनाये थे। वो ग्रंथ बादशाह को रोजाना सुनाते थे। जिससे फलस्वरुप बादशाह का जन्मका महिना, हर रविवार, हर संक्रान्ति, और नवरोजाके दिनों में कोई भी व्यक्ति जीवहिंसा न करे ऐसा फर्मान बादशाह के पास निकाले थे।
एक दिन बादशाह लाहोर में था। शान्तिचन्द्रजी भी वहां थे। आप इदके अगले दिन बादशाह के पास चले गये। और कहने लगे, मेरे को कल जाने की भावना है।
बादशाहने पूछा, अकस्मात क्यों जानेका सोचा? तब उपाध्यायजीने कहा, कल इदके दिन हजारों नहीं बल्के लाखों जीवों की कतल होनेवाली है। उनका आर्तनाद से मेरा हृदय
भारि कंपित हो जायगा, इसलिये जाने का विचार किया है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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सूरिजी के पास बादशाहनें जीवहिंसामें महापाप है। वो बहुत दफे सुना था। अतः उसने अपने उमराव-सरदार-अबुलफजल और मौलवीओं को बुलाकर मुसलमानों का परम श्रद्धेय धर्मग्रंथ को पढाया। बाद लाहोर में ढंढेरा पिटवा दिया कि कल इदके दिन कोई भी व्यक्ति किसी भी जीवकी हिंसा न करें।
थोडे दिन बाद उन्होंने बादशाह के पास से मोहरमके महिने और सूफी लोग के दिनों में तथा बादशाह के तीन लडके जहांगीर, मुराद और दानीयाल का जन्म दिन का महिने में जीव हिंसा नहीं करने का फर्मान जाहिर कराया था। सब मिलकर एक सालमें छः महिनें और छः दिन अधिक अपने सारे राष्ट्र में जीवहिंसा बंद करवाई थी। इतना उन्होंका बादशाह पर प्रभाव पड़ा था।
उपाध्यायजी वहांसे विहार कर गुजरात पधारे, तब भानुचन्द्र और सिद्धिचंद्र गुरु-शिष्य बादशाह के पास थहरे थे। उन्होंने अपनी विद्वता और कुछ चमत्कारपूर्ण विद्या से बादशाह को बहुत आदरवाले बनाये थे। बादशाह जहां जाते थे वहां भानुचन्द्रजी को साथ में ले जाते थे।
___एक समय की बात है। बादशाह के शिर में बहुत पीडा हुई। वैद्य, हकीमों को दवाई की मगर पीडा शांत न हुई। तब उसने भानुचंद्रजी को बुलाकर, उनका हाथ अपने शिर पर रख दिया । थोड़े दी देर में दर्द नष्ट हो गया। इनकी खुशाली में उमरावोंने कुर्बान के लिये पांचशौ गाय इकठ्ठी को। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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वो देखकर बादशाह अत्यंत क्रोधावश होकर कहने लगा, मेरा दर्द मिट गया व खुशाली की दिवाली में दुसरें जीवों के दुःखको होलीहोती है। अतः सब गायोंको छोड दो। तत्काल उमरावों ने सारी गायों को छोड़ दी।
एक समय बादशाह काश्मीर गये थे। भानुचंद्रजी भी साथ में थे। बीरबल ने सम्राट को कहा, सब पदार्थ सूर्य से उत्पन्न होते है। अतः आप सूर्य की उपासना करो। बादशाह के अनुरोध से सूर्य का सहस्रनाम भानुचन्द्रजीनें बना कर दिया। बादशाह हर रविवार को भानुचन्द्रजी को स्वर्ण से रत्नजडित सिंहासन पर बैठा कर 'सूर्यसहस्रनामाध्यापक' ग्रंथ सुनते थे।
बादशाह के पुत्र शेखुजो की पुत्रीने मूलनक्षत्र में जन्म लिया । ज्योतिषि कहने लगा, व लडकी जो जिंदा रहेगी तो बहुत उत्पात होगा। अतः उनको जलप्रवाह में बहा दो।
शेखुने भानुचंद्रजी की सलाह मांगी। भानुचन्द्रजीने बालहत्या का महापाप दिखाकर ग्रह की शान्ति अर्थे अष्टोत्तरी शान्ति स्नान पढाने का किया । तब शेखजीने एक लाख रुपये व्यय कर अष्टोत्तरी शान्तिस्नात्र ठाठ से पढाया। इस दिन सारे संघने आयंबील की तपस्या की थी।
इस पवित्र मंगलिक कार्य से बादशाह और शेखुजीका विघ्न चल गया। और जैन शासन की बडी प्रभावना हुई।
उस समय भानुचंद्रजी को उपाध्यायपद देने को बादशाहनें सूरिजी पर विज्ञप्ति-पत्र लिखें। उन्होंने मंत्रीत वासक्षेप भेजा।
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भानुचंद्रजी को बडा समारोह के साथ वाचक पदसे अलंकृत किया गया। तब अबुलफजलने पच्चीस घोडा और दस हजार रुपये का दान दिया और संघने भी बहुत दान-सरिता बहाई ।
भानुचंद्रजी जैसा विद्वान थे ऐसे उनके शिष्य सिद्धिचन्द्र भी विद्वान और शतावधानी थे। बादशाहनें उन्हों का चमत्कार से उन्हें 'खुशफरम' की पदवी दी थी। सिद्धिचंद्रने, बुरहानपुर में बत्तीस चोर मारे जाते थे उनको बादशाहकी आज्ञा लेकर छुडाये थे। और एक बनिया हाथी के पाँव नीचे मारा जाताथा उनको भी छुडाया था। उनका फारसी भाषापर अच्छा प्रभुत्व था।
बादशाहने सिद्धिचन्द्रकी साधु धर्मकी परीक्षा करने के लिये पहले बहुत धनवैभव का लोभ दिखाया। मगर जब वह चलित न हुवे तो उन्होंने मारने की भी धमकी दी, उससे भी वो डरे नहीं। बल्कि उन्होंने बादशाह को ऐसे-ऐसे खुल्ले शब्दो में सुना दिया कि बादशाह सुनकर उनके चरणकमलमें अपना शिर डालकर भावपूर्ण वंदना करने लग गया।
एक बार बादशाह लाहोरमें था। अकस्मात उनको सूरिजी को बुलाने की मनोकामना हुई। अबुलफजल को बुलाया, और सूरिजीको आमंत्रण देनेको कहा, तब अबुलफजलनें कहा, नामवर ! वो तो बड़े वृद्ध हो गये है, मगर विजनसेनसूरिको आमंत्रण दो, सूरिजीने भी उनको भेजने का वचन दिया है।
__ तब बादशाहने सूरिवर पर श्रद्धा पूर्ण ऐसा भाव-सभर पत्र लिखा कि पढकर सूरिजो गहन विचार-धारामें लीन हो गये। एक
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तरह अपनी वृद्धावस्था और दूसरी तरह शासन- उद्योत के कारण बादशाहकी विज्ञप्ति ; 'इतो व्याघ्रः इतो दुस्तटी:' ऐसा सूरिजी को हो गया । मगर सूरिजीनें निजी स्वार्थको गौण करके विजयसेन सूरिजीको दिल्ली जाने को अनुज्ञा दी। उन्होंने भी गुरु आज्ञा शिरोधार्य करके वि. सं. १६४९ मा. सु. ३ को प्रयाण किया ।
विजयसेन सूरिजी विचरते-विचरते ज्येष्ठ सुद १२ के मंगल दिन लाहोर पधारे । तब भानुचंद्रजीनें संघ के साथ भव्य स्वागत यात्रा निकाली थी । उनमें बादशाहनें हाथी-घोडा - शाही बॅन्डपार्टी आदि भेज कर स्वागत की शोभा द्विगुण बढा दी थी ।
बादशाह के पास विजयसेनसूरि बहुत दिन रहे थे। एक दिन उन्हों के शिष्य नंदिविजयजीनें विधविध देशोकें राजवींओंसे युक्त राजसभा में अष्टावधान किया। तब आपके कौशल्य से चमत्कृत होकर बादशाहनें 'खुशफहम्' पद से आपको विभूषित किया ।
विजयसेनसूरिने बादशाहके हृदय-पट पर ऐसा प्रभाव डाला था कि उन्होंका आप के उपर बहुत पूज्यभाव हो गया था । इस कारण आपका ज्यादा ज्यादा सन्मान करते थे, और बड़े बड़े उत्सवों में सहायता भी देते थे ।
आपका भारी सम्मान देखकर कई ब्राह्मण आदिनें अकबर के दिल में यह बात ठोंस दी, कि जैन लोग इश्वरको नहीं मानते है, गंगाको पवित्र नहीं मानते है, सूर्यदेव को नहीं मानते है । उक्त कथमसे भोले बादशाह को चोट लग गई। उसने विजयसेनसूरि
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को बुलाया, और उक्त विषय के प्रश्न पूछे, सूरिजीने कहा, आपको अध्यक्षतामें एक सभा बुलाकर उसका निर्णय करेंगे।
बादशाहने एक दिन मुकरर किया। एक तरह विद्वान 'ब्राह्मण पंडित आये दूसरी तरह विजयसेनसूरि - नंदीविजय आदि पधारे। दोनों पक्षोंने अपना-अपना मतका प्रतिपादन किया। इसमें विजयसेनसूरिने तर्क और प्रभावोत्पादक युक्तियाँसे ऐसा निरसन किया कि सारी सभा स्तब्ध हो गई और पंडितजी निरुत्तर बन गये। वहां बादशाहने प्रसन्न होकर 'सरिसवाई' की पदवी देकर आपका बहुमान किया।
विजयसेनसूरिने अपने उपदेशके प्रभावसे गाय-भेस-बेल आदि का हिंसा का निषेध और मृत मनुष्यका कर बंद कराये थे। और चार महिने तक सिंधु नदी और कच्छ के जलाशयोमें से मछलीयाँ नहीं मारने का फर्मान भी निकलवाया था।
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" लब्धिवाणी"
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श्रद्धा को स्थीर रखे, वही वास्तविक ज्ञान है !
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सुवाओं को प्रतिबोध :
हीरसूरिजी महाराजनें अकबर को जैसा प्रतिबोध दिया, ऐसे राजा-महाराजा और सुबाओं को भी बोध दिया था। क्योंकि बादशाह को सरलता से समजा सकते है । सत्ता के मद से मस्त होते थे और अहमेंन्द्र थे । अराजकता भी बहुत चलती थी । इसलिये बहुत थे ।
मगर सुबाओं तो
और उस समय जुल्मी भी वो
वि. सं. १६३० सालमें पाटण के सुबेदार कलाखाँ बहुत जुल्मी थे । उसका नाम सुनके प्रजा कंपित हो जाती थी । ऐसे जीव को भी उपदेश के जल से शान्त बनाकर, जिस बंदी को प्राणदन्ड की सजा दी थी । उसको मुक्त कराया और सारे नगर में एक महिना की अमारि की उद्घोषणा कराई ।
सूरिजी वापिस गुजरात आ रहे थे । तब मेडता के सुबा खानखाना नें मुलाकात की । वो मुसलमान थे, इसलिये उन्होंने मूर्तिपूजा के विषय में प्रश्न पूछे, सूरिजीनें ऐसा समाधान दिया कि, उसने खुश होकर सूरिजी को बहुत मूल्यवान पदार्थों की भेट दी । सूरिजीनें वो नहीं ग्रहण करके अपना धर्माचार का ब्यान दिया । जिससे वो सूरिजी पर आफ़ोन हो गये ।
सिरोही के आंगण में सूरिजी पधारे । तब वहां का राजा महाराव सुरतान पर ऐसा उपदेश का प्रभाव डाला कि, प्रजा पर जुल्मी कर लेते थे वो बंद करा दिया। और बिना कारण एकसो श्रावकों को जेल में डाला गया था । जिससे सारे संघ में हाहाकार की करुण हवा प्रसर गई थी । सूरिजीनें कोई कारण बताकर
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सब मुनिवरों के साथ आयंबील कर महाराजासे भेट की।
और ऐसा प्रभावोत्पादक बोध का धोध बहाया कि राजाने उसी दिन शामको सबको मुक्त कर दिया। . ऐसे खंभात के सुल्तान हबीबुल्लाह, अहमदाबाद के सुबा आजयखां, पाटण के सुबा का सीमखाँ, (वि. सं, १६६० के समय सिद्धाचल यात्रा संघ में जाते समय अहमदाबाद में सुलतान मुराद (अकबरके पुत्र) आदि कई राजाओं, सुबेदारों को उपदेश-वारि से बोध देकर अहिंसा देवी का साम्राज्य प्रसारा था और शासन की महाप्रभावना की थी।
IMILAIFILMभामाILIIIIIIHIसाह TIMITI
VUITTOMIITITOITUITO
SIMILIAMINOMANTIादात WOWTIMIZGATIVUILLOU
__लब्धिवाणी" जैसे-जैसे तष्णा तरूण होती है वैसे-वैसे मोह अरूण होता है। मोहकी मस्ती दुरकरनी
होतो धर्मकी मस्ती उत्पन्न करो !
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IIII
I IIIII
TIMIIIIMNESTIIIIIII IIIII IIIMSTITUTOINTIMITIGATI
"लब्धिवाणी" संतति को संस्कारी बनाने के लिये
माँ-बाप और बडोलोगोंको प्रथम अपना संस्कारी जीवन बनाने की जरूरत है।
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दीक्षाको कतार और शिष्य संपदा :
समय-समय का कार्य कर रहा है। कोई समय दर्शन के उदय का आता है तो कोई समय ज्ञान का आता है ।
ऐसे हीरसूरिजी का समय चारित्रका था। उनके चारित्र के प्रबल प्रतापसे चारों ओर दीक्षाकी बंशी बज रही थी।
भलभला गर्भश्रीमंत-विद्वान-कमल जैसे सुकुमालांगी सारे कुटम्ब के कुटुम्ब पारमेश्वरी प्रव्रज्या के पथिक बनकर मुक्ति-मार्ग पर चल जाते थे।
सूरिजी की ऐसी प्रभावक देशना-शक्ति थी। पर गच्छ के साधु सत्यमार्ग में आ जाते थे।
वि. सं. १६२८ साल की बात है। लोंकामतकें अग्रेसर मेधजी ऋषि ने मूर्तिपूजा की सत्य श्रद्धा हो जाने से त्रीश मुनिवर के साथ सूरिजी के पास आकर संविग्न संयम की स्वीकृति की। और उनके कई गृहस्थ अनुयायी सूरिजी के भक्त हो गये थे।
वि. सं. १६३१ में खंभात में सूरिजीने ग्यारह मनुष्यकों दीक्षा के यात्री बनाये थे।
पाटण के निवासी अभयराज नामके गर्भश्रीमंत गृहस्थ दीवमें व्यापार कर रहे थे, उसकी लडकी गंगाकुमारी के दीक्षा निमित्त से पिता-पुत्र-पत्नी-पुत्री- भाई की पत्नी और चार अपने Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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सेवकें और खंभात के एक भाई सब मिलकर दश भाई-बहिनों की खंभात में बड़े उल्लास से दीक्षा हुई थी। ' तक वायणां आदि शुभकार्य हुआ था । चलनी नाणा महमंदी का पैंतीस हजार का खर्च हुआ था ।
उन्हों का तीन महिनें दीक्षा में उस समय का
तीसरे प्रकरण में जिस रामजी लडको की बात जो आप पहले पढ़ चुके है। उन्होंने चारित्र को प्रबल भावना से शादी नहीं की थी । उनको पिता और बहिन दीक्षा नहीं दिलाते थे इसलिये उसने भगकर दीक्षा अंगीकार कर ली थी । आदि ग्यारह मनुष्यों ने भी दोक्षाली थी । अहमदाबाद एक ही साथ अठारह मनुष्यों की दीक्षा सूरिजी के वरद हस्ते ठाटबाट से हुई थी ।
मेघविजय
बादशाह के पास जेतारण नामक बादशाह का कृपापात्र था । उन्होंने भी हुई । उसने बादशाह की अनुमति माँगी । परीक्षा कर आज्ञा दे दी । उसकी ठाठ से दीक्षा होने से जीत विजयजी 'बादशाही यति' के नामसे प्रसिद्ध हुये ।
गृहस्थ था । वो दीक्षा की भावना
बादशाह ने उसकी
एक बार आप सिरोही में बोराजते थे । रात को स्वप्न आया कि हाथी के चार बच्चे सुंढमें पुस्तक लेके पढ रहे है । सुबह सूरिजीनें सोचा, चार महान शिष्य का लाभ होंगे। थोडे ही दिनमें रोह का ( आबू के पास ) सुप्रसिद्ध श्रीवंत शेठ अपने चार पुत्रोंपुत्र - बहिन-बहनोई - भाणजा और अपनी स्त्री के साथ सिरोही में दीक्षा लेने को आये थे । इसमें से कुंवरजी लडका आगे जाकर आ. विजयानंदसूरि बने थे ।
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सिरोही में वरसिंह नामक बहुत धनी-मानी गृहस्थ था । उनके ब्याह की तैय्यारी चल रही थी। मंडप डाला गया था । सुबह-शाम शहनाई के बाजा बज रहे थे। सुहागण स्त्रिएँ घवल मंगल गीतें मधुर कंठ से ललकार रही थी। वरसिंह चुस्त धर्मी थे। रोजाना सुबह शाम सामायिक-प्रतिक्रमण उपाश्रय में करते थे। इस दिन उसने सामायिक सुबह लिया था। तब उनकी भाविपत्नी पू. सूरिजी को वंदनार्थ आकर वंदन करके पीछे, सूरिजी के पास बैठे हुये वरसिंह को भी उसने वंदना की। थोडे दूर बैठे हुये एक भाईने कहा, अब तो तुने दीक्षा लेने पडेगी। क्योंकि तेरी भाविपत्नी तुझको वंदन करके अभी गई। तब उसने कहा, जरूर मैं दीक्षीत बनूंगा। अब वो घर पर गये, सारा कुटुम्ब को इकट्ठा किया और अपनी दीक्षा की बात जाहिर की। बहुत अरसपरस चर्चा हुई। अंत में उनको विजय मिली। ये ही शादी का मंडप दीक्षा के मंडप में परिवर्तन हो गया। और ठाठ से उनको दीक्षा हुई। आप आगे पंन्यास हुये और १०८ शिष्य के गुरु बने थे ।
__ इसलिये विदित होता है कि सूरिजीने १०८ आदमीओं को दीक्षा दी थी। १०८ साधुको पंडित पद और सात साधुको उपाध्यायपद दिया था। आपको प्रबल पूर्व की पुण्याई से सब मिलाकर दो हजार साधु की संपदा थी याने आप दो हजार साधु के नेता थे। नेता हो जाने से प्रशंसा नहीं होती मगर समुदाय का संगठन, शासन के हित और रक्षा के लिये सदैव कटिबद्ध रहना वो सर्वश्रेष्ठ सराहनीय था। आपने अंतः तक वे कार्यका पूर्णपालन किया था।
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सूरिजी के मुनिवरों में कई व्याख्यानविशारद और कवि थे। कई योगी ध्यानी एवं उग्रतपस्वी थे। शतावधानी-क्रिया कांडी एवं ताकिक-नैयायिक थे। और साहित्य इत्यादि भिन्नभिन्न विषय के प्रकांड विद्वान भी थे। जिससे अनेक लोगों प्रभावित होते थे । इसमें से दो-तीन अग्रणी आचार्यादि श्रेष्ठ मुनि पुङ्गव की पहिचान कराता हूं । जो सूरिजी के बडे आज्ञांकित और माननीय थे।
विजयसेनमूरि .-- आपका जन्मस्थान नाडलाइ थे। जब आपकी सात साल की उम्र थी तब पिताने संयम लिया था।
और नौ साल की उम्र हुई तब आपने, अपनी माता के साथ सुरत में वि. सं. १६१३ ज्ये. सु. १३ के मंगल दिन दीक्षा ली थी। आप इतने विद्वान थे कि आपने योगशास्त्र के प्रथम श्लोकका ७०० अर्थ किया था। आपको वि. सं. १६२६ में पंन्यासपद और वि. सं. १६२८ में उपाध्याय और आचार्यपद से अलंकृत किया गया था। अहमदाबाद-पाटण-कावी आदि नगरों में चार लाख जिनबिम्बों को आपने प्रतिष्ठा की थी। और तारंगाआरासर-सिद्धाचल आदि मंदिरों का जिर्णोद्धार भी कराया था। जब आप गच्छनायक हुये थे। जब आप गच्छनायक हुये थे, तब आपके समुदायमें ८ उपाध्याय, १५० पंन्यास और बहुत साधु विद्यमान थे। आप ६८ साल की आयु पूर्णकर खंभात के परा-अकबरपुरमें स्वर्ग सिधाये थे।
शांतिचन्द्रजी उपाध्याय – आपके गुरु सकलचन्द्रजी थे। आपने इडर और सुरत में दिगंबराचार्य के साथ वाद करके Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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विजय प्राप्त किया था । वि. सं. १६५१ में आपने जंबुद्विपपन्नति को टीका की है । आपके चारित्र के प्रभाव से वरुणदेव आपके सदा सान्निध्य में थे । इसलिये आपनें बादशाहको कई चमत्कार बताकर अहिंसा और शासनको प्रभावना प्रसारी थी ।
आपके जन्मभूमि सिद्धपुर
पाठकवर मानुचन्द्रजी आप लडकपण से बहुत चतुर थे ।
थी ।
आपको दुसरा भाई
भी था । आप दोनों के साथ में प्रव्रजीत हुये थे । आपकी विद्वता और योग्यता से सूरिजीनें बादशाहके पास आपको रखा था। उन्हों का ऐसा प्रभाव बादशाह पर पडा था कि वो आगे के प्रकरण में देख गये है । अकबर के देहांत बाद भी भानुचंद्रजी पुनः आगरा गये थे, और जहांगीर के पास फरमानें कायम रखने का और उन्हें पालन कराने का हुकम कराया था । जहांगीर को भानचन्द्रजी पर बहुत श्रद्धा थी । आपनें बुरहानपुर में उपदेश के प्रभाव से दस नये मंदिर बनवाये थे । जालोर में एक ही साथ एकतीस पुरुषों को आपने दीक्षा दी थी । आपको तेरह पंन्यास और ८० विद्वान शिष्य थे ।
ओर भी वाचक कल्याणविजय, पध्मसागरजी, उपाध्याय धर्मसागरजी गणि, सिद्धिचन्द्रजी, नंदिविजय, हेमविजयजी आदि भी धुरंधर मुनिवर थे । उन्होंने भी स्व पर कल्याण के कार्य कर शासन की विजयपताका चारें ओर लहराई थी ।
" लब्धिवाणी "
हाथ का भूषण हेन्डवॉच नही मगर दान है, कंठ का भूषण सौ तोलेका सोने का कंठा नही मगर सत्य वचन है ।
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सूरिजी का स्वर्गगमन :
. सूरिजी दिल्ही से बिहार करते-करते नागोर पधारे थे । इधर जैसलमेर के संघ वंदनार्थ आये। उन्होंने सूरिजी की सोनया से पूजा की थी। आप इधर से पीपाड पधारे तब खुशाली में ताला नामक ब्राह्मणनें आपके स्वागत में बहुत धन व्यय किया था। वहां से आप सिरोही-पाटण-अहमदाबाद होकर राधनपुर पधारे। संघर्ने छः हजार सोनामहोर से आपकी गुरु पूजा की थी।
पुनः आप पाटण पधारे, उस समय आपको एक स्वप्न आया, "मैंने हाथी पर बैठकर पर्वतारोहण किया, और हजारों लोग वंदन कर रहे है।"
आपने सोमविजयको स्वप्न सुणाया, सोमविजयजीने कहा, आपको सिद्धाचल की यात्रा का महान लाभ होगा।
थोडे ही दिनों में आपकी पुनित निश्रा में पाटण से सिद्धाचलका छरीपालक संघका प्रस्थान हुआ। गुजरातकाश्मीर-बंगाल-पंजाब के बडे-बडे शहरों में आदमिओं को भेजकर संघ में पधारने की विनंति की गई। बहुत लोग संघ लेकर आये। इस संघमें ७२ संघवी थे। इनमें श्रीमल्लसंघवी के ५०० रथ थे।
___ सोरठके सूबेदार नौरंगखांको विदित हुआ, सूरिजो बड़े संघ के साथ आ रहे है। उस समय उसने आगेवानी लेकर
आपका भव्य स्वागत किया। इस संघमें पचास गांव-नगरोंका संघो Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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सम्मिलित हुये थे। कहा जाता है कि, इस यात्रा-संघमें एक हजार साधु और दो लाख मनुष्य थे। पालीताणामें आपको वंदना करते हुये डामर संघवीने सात हजार महमुंदिका (चलनी नाणा) का व्यय किया था।
दीवबंदर की लाडकी बाई नामक श्रावीकाने विज्ञप्ति की, कि आप सब जगह सग्यगज्ञान का प्रकाश डालते हो मगर हम लोग तो अंधेरे में गोरे है।
सूरिजीने कहा, आपकी भावना हो ऐसा होगा। उस समय एक आदमीने पालीताणासे दीवबंदर जाकर संघ को सूरिजी को पधारने की वधामणी दी। संघने उसको चार तोले की सोनेकीजीभ, वस्त्र और बहुत लहारीयाँ भेट दी।
आप, पालीताणासे महुवा आदि होकर उना पधारे । उस समय जामनगर के दीवान अबजी भणसालीने आकर आपकी और सब साधुको स्वर्णमुद्रासे नव अंगको पूजा की और एक लाख मुद्राका लुंछन किया, इतना ही नहीं याचकोंको बहुत दान भी दिया।
अब अपन सूरिजीके आंतरिक गुण-श्रेणी बताकर इन सुगुणमौक्तिकसे अपना जीवन सभर बनाईये।
सूरिजीमें क्षमा-समता-दाक्षिण्यता-गुरुआज्ञा इत्यादि गुण इतना ओतप्रोत था कि, जब अपने उनके जीवन-चर्या के एक-दो प्रसंग देखेंगे तो विदित हो जायगा। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
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एक बार गोचरीमें खीचडी अत्यंत खारी आई थी। वे खोचडी सूरिजीके खानेमें आई। आप मौन होकर आहार कर गये। पीछेसे श्रावक दौडते-दौडते आये और कहने लगा, महाराज मेरी बहुत गल्ती हुई माफकरें। साधुनें पूछा, क्या हुआ? उसने उक्त प्रसंग को सुणाया। शिष्यों, सूरिजोके मौनसे दिगमूढ हो गये, और बोलने लगा, आपने रसनेन्द्रिय पर कितना काबू लिया है। आप रोजाना बारह द्रव्य (चीज) आहार में लेते थे।
___ एक बार आपके कम्मर में फोडा हुआ था। वो बहुत पीडा कर रहा था। रातको एक श्रावकनें भक्ति करते हुये अपनी अंगूठी से वो फोडा फुट गया। खुन बहने लगा। इस समय आपको इतनी पीडा हुई कि, आपने एक भी शब्द अपने मुँह से नहीं निकालकर उस पीडाको सहन किया। सुबह सोम विजयजीने पडिलेहण समय उत्तरपटो (चादर) रक्तवर्णो दिखें। सूरिजीनें रातकी बात सुनाई। श्रावकका अविनयसे शिष्य को खेद हुआ। मगर सूरिजीने ऐसा उत्तर दिया कि, साधु मंडली गुरुवरके सहनशीलता पर मुग्ध हो गई।
गुरुदेव के प्रति आपकी भक्ति भी इतनी थी कि, एक समय गुरुदेव विजयदानसूरिजीनें आपको पत्र भेजा। शीघ्र पत्र पढकर आ जावें।
__ आपने पत्र पढे, उस दिन आपको छ? (दो उपवास) था। श्रावकोंने पारणा के लिये बहुत आग्रह किया। मगर अपन तुरत ही बिना पारणा किये विहार करके गुरुवर के पास पहुंच गये । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
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जब गुरुवरको मालुम हुआ तब आपकी गुरुभक्ति पर गुरुदेव अत्यंत प्रसन्न हो गये।
आप, एकांतमें घंटोंतक खडे - खडे ध्यान करते थे। कितनी बार तप्त हुई वालुका पर बैठकर आलापना लेते थे। एक बार सिरोहीमें खडे-खडे ध्यान करते थे, सहसा चक्कर आनेसे गीर गये। सब साधु सोते हुये उठ गये। सबनें आपको विनंति को, कि आपका शरीर अब बलहीन हो गया है। इसलिये बैठे-बैठे ध्यान कीजिये। आपके सुखाकारी से संघमें और समुदायमें क्षेमकुशल रहेगा। तब आपने नश्वरदेहका ऐसा महिमा समझाया कि, सब मुनि स्तब्ध हो गये और आपने देह पर का ममत्व कितना दूर किया है उनकी प्रशंसा करने लगे।
आप, जैसे ज्ञानी-ध्यानी-अष्टप्रवचनमाताके पालनमें सतत उपयोगशील थे। ऐसे तपस्वी भी बहुत थे। आपने अपने जीवन में ८१ अठुम, २२५ छठ्ठ, ३६०० उपवास, दो हजार आयंबील, दो हजार नीवी के साथ वीशस्थानक तपकी वीश बार आराधना-तपस्या की थी। तीन महिने तक ध्यानमें बैठ कर सूरिमंत्र का जाप किया था। और तीन महिनें दिल्ली में एकासण-आयंबोल-नीवी एवं उपचास किया था। ज्ञान की आराधनार्थे २२ महिने तपस्या की और गुरुतपमें २३ महिने तक छछु-अठ्ठम आदि किया था। रत्नत्रयीके आराधनके लिये २२ महिने बारह प्रतिमा वहन की थी।
आपके देहमें वय और अशुभोदयसे रोग आक्रांत हो गये ये। आपने औषध लेनेका बंद कर दिया। संघमें हाहाकार
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मच गया।श्रावकोंने उपवास करके, और श्रावीकाओंने बच्चाओंको स्तन पान कराना बंदकर हडताल पर उतर गये, और उपाश्रयमें सूरिजी दवाई ले इस लिये बैठ गये।
• सोमविनयजी आदि साधु के अति आग्रहसे अपनी इच्छा विरुद्ध औषध लेनेको स्वीकृति की। चंद्रको देखकर सागर उमटता है ऐसे संघमें हर्षका सागर उछल पडा।
गच्छकी चिता और शासनके हितके कारण आपने विजय सेन सूरिको बुलानेकी तीव्र उत्कंठा हुई। साधुओंने मुनि धनविजयजी को उग्र विहार कराकर लाहोर भेजे। बादशाहकी आज्ञा लेकर विजयसेनसूरिने उनाकी ओर विहार कर लिया। जैसी आपको शिष्यको मिलनेकी तमन्ना थी ऐसी उन्होंने भी शीघ्र आपकी सेवामें पहुंचने की उम्मेद थी।
_ विजयसेनसूरि जैसे उग्र विहार कर रहे थे, ऐसे इधर भी सूरिजीके देहमें रोग तीव्र रुप पकड रहे थे।
चातुर्मास आया, पर्युषणा आया। अभी विजयसेनसूरिजी नहीं आये। चिता से आप अत्यंत व्यथित हो रहे थे। वाचक कल्याणविजयजी, वाचक विमल हर्ष और सोमविजय ने कहा, गुरुवर ! आप निश्चित रहें विजयसेनसूरिजी शीघ्र आ रहे है।
पर्यषणमें कल्पसूत्र का व्याख्यान आपनें ही दिया। इससे परिश्रम बहुत पडा और स्वास्थ्य ज्यादा शिथिल बना।
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वि. सं. १६५२ के भा. सु. १० को मध्यरात्रिको आपने वाचक विमल हर्ष आदिको बुलाया । और कहने लगा, विजय सेनसूरिजी आये नहीं । इसलिये जैसी आप सबनें मेरी आज्ञा और सेवा उठाई है, ऐसी विजयसेनसूरिकी सेवा और आज्ञा का पालन करना । समुदाय में सदा संघठन रखना और शासन प्रभावना जैसी होवे ऐसी रीति से वर्तना । ऐसा मेरा अनुरोध है - आज्ञा है ।
और मैंने अभी तक सबको सारणा वारणा आदि प्रकार से सब कुछ कहा होगा । इस लिये सबको खमाता हुं-मिच्छा. मिटुक्कडं देता हूं । जाणे कोई हृदयमें वज्र न डालता हो ऐसी हृदयद्रावक सूरिजी की बाणी सुनकर शिष्योंका हृदय फुटने लगा और नेत्र में से अविरत अश्रुधारा बहने लगी ।
सोमविजयजीने कहा, आपने तो हमकों पुत्र जैसे पालन किया है । अंधेरे में गिरे हुये को प्रकाशमें लाये हो । आपका हमनें बहुत अपराध - गुन्हा किया है। आप तो गुणके सागर है । अतः विविध - त्रिविध हम सब आपको खमाते है । आप, क्षमा दान करें ।
आपने सकल जीवराशिको क्षमापना करते हुवे चारशरणां, सुकृतका अनुभोदन और दुष्कृतकी गर्हा की । सुबह हुई । भा. सु. ११ का दिन सुबह से सारा उपाश्रय श्रावक-श्राविकासें ठसों ठस भर गया । आप तो ध्यान में लीन हो गये थे । शाम हुई, प्रति क्रमण किया। बाद आप, पध्मासन में बैठकर हाथमें माला लेकर अरिहंतध्याममें मस्त बन गये । चार माला -माला गीते - गोनते सहसा गिर पडे, और
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पूर्ण हुइ ! पाँचवीं आत्म-हंसलो देह
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पिजरको छोडकर स्वर्ग प्रति मुक्त बन कर चला गया। वहाँ जय जय नंदा के घंटनाद हुआ। इधर गुरु विरह का आर्तनाद गुंज उठा। आप, ५६ साल का सुविशुद्ध संयम पालन करके ६९ साल की आयुः पूर्ण कर स्वर्धाम पधारें।
गाँव गाँव में कासीद द्वारा कालधर्मका समाचार भेजा गया। इधर सारा जैन-जैनेतर वर्ग एकत्र हुआ। आपकी अंत्येष्ठी क्रिया कराई। तेरह खंडका भव्य विमान जैसी पालखी बनाके इसमें आपके विभूषित शबको पधराये। हजारों लोगोंने विविध प्रकारको दानको निधि उछालीं। घंटानाद बजाया। श्मशानयात्रा गाँव बाहर आंबावाडीमें आई। इधर शबको चितामें पधराया, तो संघ हृदयमें से नेत्रों द्वारा अश्रु बाहिर आये। चिता प्रगटावाइ और इसमें १५ मण चंदन-५ मण अगर-३ शेर कपूर-२ शेर कस्तुरी-३ शेर केसर और ५ शेर चुआ डाला गया। पार्थिव देह नष्ट हो गया मगर यशोदेह स्थिर रह गया। सब साधुओंने आपके विरह-वेदना से अठ्ठम किया था।
जहां आपका अग्नि संस्कार हुआ था। इसके आसपास की २२ वीघे जमोन बादशाहनें जैन संघ को अर्पण की थी। वहाँ स्तुप बनाकर पगलांकी प्रतिष्ठा की गई।
इधर विजयसेनसूरिजी उग्र विहार करते भा. व. ६ के दिन पाटण पधारे। आपने सोचा, गुरुजीका सुखद समाचार सुनेंगे। किंतु इधर तो आपको हत्य-भेदक गुरुवरका कालधर्मका समाचार मोलें तुर्त ही निश्चेत बनके गीर गये। और
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आनंद के साथ ज्यादा बोलने पाटणका सारा संघ एकत्र हुआ । चित्त स्वस्थ करावा । आपने आप उना की ओर पधारे ।
भगवान गौतम स्वामीकी तरह गुरु-विरह के मारा अति हृदयफाट लगे । तीन दिन ऐसा रहा । आपको बहुत समझाया और आहारपाणी लिया वहां से
इधर चमत्कार एक ऐसा हो गया कि, जब सूरिजीको अग्निदाह दिया । तब सारे आमवृक्ष पर फल - महोर आ गये । वंध्य आम के पेड थे इस पर भी फल आ गये। वैशाखमें आने वाले आम फल भाद्रपद में कैसे आये सब आश्चर्य में पड गये । सब फल बडे-बडे शहर में, अबुलफजलको और बादशाहको भेजे गये, और सूरिजीका चमत्कारका पत्र भेजा गया । जिससे बादशाहकी सूरिजी के प्रति भक्ति श्रद्धा और बढ गई और उन्होंने स्तुति भी की ।
"1
वह स्तुति बादशाहके शब्दो में प्रस्तुत कर चरित्र समाप्त करताहुं । उन जगद्गुरुका जीवन धन्य है । जिन्होंने सारी जिंदगी दूसरोंका उपकार किया । और जिनके मरने पर ( असमय में) आम फले और जो स्वर्गमें जाकर देवता बनें। "
" इस जमाने में उनके जैसा कोई सच्चा फकीर न रहा । "
"जो सच्ची कमाई करता है वही संसार से पार होता है ।
जिसका मन पवित्र नहीं होता है, उसका मनुष्य भव व्यर्थ जाता है ।"
卐 समाप्त
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________________ ની યશોદ 21cPhlle श्री लब्धि-भुवन जैन साहित्य सद : प्रकाशनें: आवश्यक कणिका अन्तरिक्ष जिनगुण गरबावली तपोधनोनी बनीशी उत्तराध्ययनसूत्र भा. 1 समवसरणस्तव-पद्य " भा. 2 चारगतिबजार-पद्य जिन पूजा प्रभाव-गुजराती शवंजय-गुणगुंजन " हिन्दी हिन्दी गुरु गीत गंगा डगले पगले निधान मलयसुंदरी चरित्र-संस्कृत आश्चर्यायीघटका (मराठी) नवपद आराधन विधि चमत्कारिसरोवर , ललितविस्तरा भा. 1 लब्धिसूरीश्वर मृत्युक्षणकाव्यम् , भा. 2 (संस्कृत) आत्म निदर्शन तत्त्वन्याय विभाकर भा. 1 जिनेन्द्र स्तवन चोविशि भा. 2 भुवनेश भक्ति वहेण नमस्कार-स्मरणिका दशवकालिकसूत्र वाक्य वाटिका भा. 1 जगद्गुरु हीरसूरीश्वरजी " भा. 2 भक्ति दीपिका (प्रेशमें) : प्राप्तिस्थान : श्री अमीचंद धनराज गोसा हॉस्पीटाल रोड अदोनी (आन्ध्र प्रान्त) (जि. कर्नुल) __ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat w ww.umaragyanbhandar.com ,